SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्न तथा उनका परिभोग, एंकेन्द्रिय रत्न, जम्बूद्वीप का आयाम, विष्कंभ, परिधि, ऊँचाई, पूर्ण परिणाम, शाश्वत अशाश्वत कथन की अपेक्षा, जम्बूद्वीप में पाँच स्थावर कायों में अनन्त बार उत्पत्ति, जम्बूद्वीप नाम का कारण आदि बंताया गया है। व्याख्यासाहित्य जैन भूगोल तथा प्रागैतिहासिककालीन भारत के अध्ययन की दृष्टि से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अनूठा महत्त्व है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर कोई भी नियुक्ति प्राप्त नहीं है और न भाष्य ही लिखा गया है। किन्तु एक चूर्णि अवश्य लिखी गई है। उस चूर्णि के लेखक कौन थे और उसका प्रकाशन कहाँ से हुआ, यह मुझे ज्ञात नहीं हो सका है। आचार्य मलयगिरि ने भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर एक टीक लिखी थी, वह भी अप्राप्य है । ' संवत् १६३९ में हीरविजयसूरि ने इस पर टीका लिखी, उसके पश्चात् वि. संवत् १६४५ में पुण्यसागर ने तथा विक्रम संवत् १६६० में शान्तिचन्द्रगणी ने प्रमेयरत्नमंजूषा नामक टीकाग्रन्थ लिखा। यह टीकाग्रन्थ सन् १८८५ में धनपतसिंह कलकत्ता तथा सन् १९२० में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई से प्रकाशित हुआ। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद विक्रम संवत् २४४६ में हैदराबाद से प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुवादक आचार्य अमोलकऋषि जी म. थे। आचार्य घासीलाल जी म. ने भी सरल संस्कृत में टीका लिखी और हिन्दी तथा गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत संस्करण चिरकाल से प्रस्तुत आगम पर विशुद्ध अनुवाद की अपेक्षा थी। परम प्रसन्नता है कि स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकरमुनि जी महाराज ने आगम प्रकाशन योजना प्रस्तुत की और आगम प्रकाशन समिति ब्यावर ने यह उत्तरदायित्व ग्रहण किया। अनेक मनीषी प्रवरों के सहयोग से स्वल्पावधि में अनेक आगमों का शानदार प्रकाशन हुआ। पर परिताप है कि युवाचार्य श्रीमधुकर मुनि जी का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास से प्रस्तुत योजना में महान् विक्षेप उपस्थित हुआ है । सम्पादकमण्डल और प्रकाशनसमिति ने यह निर्णय लिया कि युवाचार्यश्री की प्रस्तुत कल्पना को हम मनीषियों के सहयोग से मूर्त रूप देंगे। युवाचार्यजी के जीवनकाल में ही जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुवाद, विवेचन और सम्पादकत्व का उत्तरदायित्व भारतीय तत्त्वविद्या के गम्भीर अध्येता, भाषाशास्त्री, डॉ. श्री छगनलालजी शास्त्री को युवाचार्यश्री के द्वारा सौंपा गया था। डॉ. छगनलालजी शास्त्री जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उस कार्य को वे बहुत ही तन्मयता के साथ सम्पन्न करते हैं । विषय की तलछट तक पहुँचकर विषय को बहुत ही सुन्दर, सरस शब्दावली में प्रस्तुत करना उनका अपना स्वभाव है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आगम का मूल पाठ शुद्ध है और अनुवाद इतना सुन्दर हुआ है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक को विषय सहज ही हृदयंगम हो जाता है । अनुवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह प्रवाहपूर्ण है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अनुवाद करना कोई सरल कार्य नहीं किन्तु डॉ. शास्त्रीजी ने इतना बढ़िया अनुवाद कर विज्ञों को यह बता दिया है कि एकनिष्ठा के साथ किये गये कार्य में सफलता देवी स्वयं चरण चूमती है। डॉ. शास्त्रीजी ने विवेचन बहुत ही कम स्थलों पर किया है । लगता है, उनका दार्शनिक मानस प्रागैतिहासिक भूगोल के वर्णन में न रमा । क्योंकि प्रस्तुत १. २. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग III पृष्ठ २८९ वही, भाग III पृष्ठ ४१७ [५१]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy