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होकर मध्यगंगा के बीच में जाकर कहता है-हे गृहपति ! मुझे हिरण्य-सुवर्ण चाहिये। तब गृहपतिरत्न दोनों हाथों को गंगा के पानी के प्रवाह में डालकर हिरण्य-सुवर्ण से भरे कलश को बाहर निकाल कर चक्रवर्ती के सामने रखता है और चक्रवर्ती सम्राट् से पूछता है-इतना ही पर्याप्त है या और ले कर आऊँ ?
७. परिनायक-रत्न-यह महामनीषी होता है। अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से चक्रवर्ती के समस्त क्रियाकलापों में परामर्श प्रदान करता है।
वैदिक साहित्य में भी चक्रवर्ती सम्राट् के चौदह रत्न बताये हैं । वे इस प्रकार हैं-१. हाथी २. घोड़ा ३. रथ ४. स्त्री ५. बाण ६. भण्डार ७. माला ८. वस्त्र ९. वृक्ष १०. शक्ति ११. पाश १२. मणि १३. छत्र और १४. विमान। गंगा महानदी
सम्राट् भरत षट्खण्ड पर विजय-वैजयन्ती फहराने के लिए विनीता से प्रस्थित होते हैं और गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होते हुए पूर्व दिशा की ओर चलते हैं। गंगा भारतवर्ष की बड़ी नदी है। स्कन्धपुराण, । अमरकोश, २ आदि में गंगा को देवताओं की नदी कहा है। जैन साहित्य में गंगा को देवाधिष्ठित नदी माना है। गंगा का विराट रूप भी उसको देवत्व की प्रसिद्धि का कारण रहा है। योगिनीतंत्र ग्रन्थ में गंगा के विष्णुपदी, जाह्नवी : मंदाकिनी और भागीरथी आदि विविध नाम मिलते हैं। महाभारत और भागवतपुराण इसके अलखनन्दा ५ तथा भागवतपुराण में ही दूसरे स्थान पर धुनदी नाम प्राप्त है । रघुवंश में भागीरथी और जाह्नवी ये दो नाम गंगा के लिये मिलते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार गंगा का उद्गमस्थल पद्महद है। “ पालिग्रन्थों में अनोतत्त झील के दक्षिणी मुख को गंगा का स्रोत बतलाया गया है। आधुनिक भूगोलवेत्ताओं की दृष्टि से भागीरथी सर्वप्रथम गढ़वाल क्षेत्र में गंगोत्री के समीप दृग्गोचर होती है। स्थानांग, समवायांग, ११ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, १२ निशीथ १३ और बृहत्कल्प ४ में गंगा को एक महानदी के रूप में चित्रित किया गया है। स्थानांग, ५ निशीथ १६ और बृहत्कल्प में गंगा को महार्णव
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१. स्कन्धपुराण, काशी खण्ड, गंगा सहस्रनाम, अध्याय २९ २. अमरकोश १।१०।३१ ।।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ३ योगिनीतंत्र २,३ पृ. १२२ और आगे; २,७,८ पृ. १८६ और आगे (क) महाभारत, आदिपर्व १७० । २२ (ख) श्री मद्भागवतपुराण ४।६।२४; ११। २९। ४२
श्रीमद्भागवतपुराण ३।५।१, १०।७५।८ ७. रघुवंश ७।३६, ८1९५; १०।२६
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ४ ९. प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, लाहा, पृ.५३ १०. स्थानाङ्ग ५।३ ११. समवायाङ्ग २४ वां समवाय १२. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ४ १३. निशीथसूत्र १२॥ ४२ १४. बहत्कल्पसूत्र ४।३२ १५. स्थानाङ्ग ५।२।१ १६. निशीथ १११४२ १७. बृहत्कल्प ४।३२
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