SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्य भी यह रन करता है । प्रत्येक रत्न के एक-एक हजार देव रक्षक होते हैं। चौदह रत्नों के चौदह हजार देवता रक्षक थे। बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय ' में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है । वह इस प्रकार हैं १. चक्ररत्न - यह रत्न सम्पूर्ण आकार के परिपूर्ण हजार अरों वाला, सनैमिक और सनाभिक होता है। जब यह रत्न उत्पन्न होता है तब मूर्खाभिषिक्त राजा चक्रवर्ती कहलाने लगता है। जब वह राजा उस चक्ररन को कहता है- 'पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतनं ति', तब चक्रवर्ती राजा के आदेश से वह चारों दिशाओं में प्रवर्तित होता है । जहाँ पर भी वह चक्ररत्न रुक जाता है, वहीं पर चक्रवर्ती राजा अपनी सेना के साथ पड़ाव डाल देता है । उस दिशा में जितने भी राजागण होते हैं, वे चक्रवर्ती राजा का अनुशासन स्वीकार कर लेते हैं। वह चक्ररत्न चारों दिशाओं में प्रवर्तित होता है और सभी राजा चक्रवर्ती के अनुगामी बन जाते हैं। यह चक्ररत्न समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर विजय - वैजयन्ती फहरा कर पुनः राजधानी लौट आता है और चक्रवर्ती के अन्तःपुर के द्वार के मध्य अवस्थित होता है। २. हस्तीरत्न - इसका वर्ण श्वेत होता है। इसकी ऊँचाई सात हाथ होती है। यह महान् ऋद्धिसम्पन्न होता है । इसका नाम उपोसथ होता है। पूर्वाह्न के समय चक्रवर्ती इस पर आरूढ़ होकर समुद्रपर्यन्त परिभ्रमण कर राजधानी में आकर प्रातराश लेते हैं। यह इसकी अतिशीघ्रगामिता का निदर्शन है। ३. अश्वरत्न - वर्ण की दृष्टि से यह पूर्ण रूप से श्वेत होता है। इसकी गति पवन-वेग की तरह होती है । इसका नाम बलाहक है। पूर्वाह्न के समय चक्रवर्ती सम्राट् उस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त घूमकर पुनः राजधानी में आकर कलेवा कर लेता है ! ४. मणिरत्न - यह शुभ और गतिमान वैडूर्यमणि और सुपरिकर्मित होता है। चक्रवर्ती इस मणिरत्न को ध्वजा के अग्रभाग में आरोपित करता है और अपनी सेना के साथ रात्रि के गहन अन्धकार में प्रयाण करता है। इस मणि का इतना अधिक प्रकाश फैलता है कि लोगों को रात्रि में भी दिन का भ्रम हो जाता है। ५. स्त्रीरत्न - वह स्त्री बहुत ही सुन्दर, दर्शनीय, प्रासादिक, सुन्दर वर्ण वाली, न अति दीर्घ, न अति ह्रस्व, न अधिक मोटी, न अधिक दुबली, न अत्यन्त काली और न अत्यन्त गोरी अपितु स्वर्ण कान्तियुक्त दिव्य वर्ण वाली होती थी। उसका स्पर्श तूल और कपास के स्पर्श के समान अतिमृदु होता था । उस स्त्रीरत्न का शरीर शीतकाल में उष्ण और ग्रीष्मकाल में शीतल होता था। उसके शरीर से चन्दन की मधुर-मधुर सुगन्ध फूटती थी। उसके मुँह उत्पल की गन्ध आती थी। चक्रवर्ती के सोकर उठने से पूर्व वह उठती थी और चक्रवर्ती के सोने के बाद सोती थी। वह सदा-सर्वदा चक्रवर्ती के मन के अनुकूल प्रवृत्ति करती थी। मन से भी चक्रवर्ती की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती थी । फिर तन से तो करने का प्रश्न ही नहीं था । ६. गृहपतिरत्न-गृहपति के कर्मविपाकज दिव्य चक्षु उत्पन्न होते थे। वह चक्रवर्ती की निधियों को उनके अधिष्ठाताओं के साथ अथवा अधिष्ठाताओं से रहित देखता है। चक्रवर्ती उस गृहपति रत्न के साथ नौका में आरूढ १. मज्झिमनिकाय III २९/२/१४, पृ. २४२-२४६ (नालंदा संस्करण) [३९]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy