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________________ पञ्चम वक्षस्कार] [३२१ हो जाता है। एक ईशानेन्द्र भगवान् तीर्थंकर को अपनी हथेलियों में संपुट द्वारा उठाता है। उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठता है। एक ईशानेन्द्र पीछे छत्र धारण करता है। दो ईशानेन्द्र दोनों ओर चँवर डुलाते हैं। एक ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल लिये आगे खड़ा रहता है। ___ तब देवेन्द्र, देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें अच्युतेन्द्र की ज्यों . अभिषेक-सामग्री लाने की आज्ञा देता है। वह अभिषेक-सामग्री लाते है। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर की चारों दिशाओं में शंख के चूर्ण की ज्यों विमल-निर्मल-अत्यन्त निर्मल, गहरे जमे हुए, बँधे हुए, दधि-पिण्ड, गो-दुग्ध के झाग एवं चन्द्र-ज्योत्स्ना की ज्यों सफेद, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीयदेखने योग्य, अभिरूप-मन को अपने में रमा लेने वाले, प्रतिरूप-मन में बस जाने वाले चार धवल वृषभोंबैलों की विकुर्वणा करता है। उन चारों बैलों के आठ सींगों में से आठ जलधाराएँ निकलती हैं, वे जलधाराएँ ऊपर आकाश में जाती हैं। ऊपर जाकर, आपस में मिलकर वे एक हो जाती हैं। एक होकर भगवान् तीर्थंकर के मस्तक पर निपतित होती हैं । अपने चौरासी हजार सामानिक आदि देव-परिवार से परिवृत देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर का अभिषेक करता है ! अर्हत् । आपकों नमस्कार हो, यों कहकर वह भगवान् को वन्दन नमन करता है, उनकी पर्युपासना करता है। यहाँ तक अभिषेक का सारा वर्णन अच्युतेन्द्र द्वारा सम्पादित अभिषेक के सदृश है। अभिषेक-समापन १५६. तए णं से सक्के देविंदे देवराया पंच सक्के विउव्वइ २ त्ता एगे सक्के भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेंति, एगे सक्के वजपाणी पुरओ पगड्डइ।तए णं से सक्के चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहिं जाव अण्णेहि अभवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि असद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव' णाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भगवं तित्थयरं माऊएपासे ठवइ २त्ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरइ २ त्ता ओसोवणिं पडिसाहरइ २ त्ता एगं महं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थयरस्स उस्सीसगमूले ठवेइ २त्ता एगं महं सिरिदामगंडं तवणिजलंबूसगं, सुवण्णपयरगमंडिअं,णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोहिअसमुदयं,भगवओ तित्थयरस्स उल्लोअंसि निक्खिवइ तण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे २ सुहंसुहेणं अभिरममाणे चिट्ठइ। ____तए णं से सक्के देविंदे, देवराया वेसमणं देवं सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ, बत्तीसं सुवण्णकोडीओ, बत्तीसं णंदाई, बत्तीसं भद्दाइं, सुभगे, सुभगरूवजुव्वणलावण्णे अभगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि। १. देखें सूत्र संख्या ५२
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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