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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र इतने बारीक और हलके, नेत्रों को आकृष्ट करे वाले, उत्तम वर्ण एवं स्पर्शयुक्त, घोड़े की लार के समान कोमल, अत्यन्त स्वच्छ, श्वेत, स्वर्णमय तारों से अन्तः खचित दो दिव्य वस्त्र - परिधान एवं उत्तरीय उन्हें धारण कराता है। वैसा कर वह उन्हें कल्पवृक्ष की ज्यों अलंकृत करता है । (पुष्प माला पहनाता है), नाट्यविधि प्रदर्शित करता है, उजले, चिकने, रजतमय, उत्तम रसपूर्ण चावलों से भगवान् के आगे आठ-आठ मंगलप्रतीक आलिखित करता है, जैसे- १. दर्पण, २. भद्रासन, ३. वर्धमान, ४. वर कलश, ५. मत्स्य, ६. श्रीवत्स, ७. स्वस्तिक तथा ८. नन्द्यावर्त । ३२० ] उनका आलेखन कर वह पूजोपचार करता है। गुलाब, मल्लिका, चम्पा, अशोक, पुन्नाग, आम्रपंजरी, नवमल्लिका, बकुल, तिलक, कनेर, कुब्जक, कोरण्ट, मरुक्क तथा दमनक के उत्तम सुगन्धयुक्त फूलों को कचग्रह-रति- कलह में प्रेमी द्वारा प्रेयसी के केशों को गृहीत किये जाने की ज्यों गृहीत करता हैकोमलता से हाथ में लेता है । वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, छूटते हैं, इतने गिरते हैं कि उन पंचरंगे पुष्पों का घुटने-घुटने जितना ऊँचा एक विचित्र ढेर लग जाता है । चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दंडयुक्त, स्वर्ण मणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले अगर, उत्तम कुन्दुरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धूम - श्रेणी - धुएँ की लहर छोड़ते हुए नीलम - निर्मित धूपदान को प्रगृहीत कर-पकड़ कर प्रयत्नपूर्वक - सावधानी से, अभिरुचि से धूप देता है। धूप देकर जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-आठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाकर उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरोच्चारण में जागरूक शुद्द पाठयुक्त, अपुनरुक्त अर्थयुक्त एक सौ आठ महावृत्तों - महाचरित्रों - महिमामय काव्यों-कविताओं द्वारा उनकी स्तुति करता है । वैसा कर वह अपना बायां घुटना ऊँचा उठाता है, दाहिना घुटना भूमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बांधे उन्हें मस्तक से लगाता है, कहता है - हे सिद्धमोक्षोद्यत ! बुद्ध - ज्ञात-तत्त्व ! नीरज - कर्मरजरहित ! श्रमण - तपस्विन् ! शल्य-कर्तन - कर्मशल्य को विध्वस्त करने वाले ! निर्भय - भीतिरहित ! नीरागदोष - राग-द्वेषरहित ! निर्मम - निःसंग, निर्लेप ! निःशल्यशल्यरहित ! मान-मरण - मान-मर्दन - अहंकार का नाश करने वाले ! गुण - रत्न - शील - सागर - गुणों में रत्नस्वरूप — अति उत्कृष्ट शील- ब्रह्मचर्य के सागर ! अनन्त - अन्तरहित ! अप्रमेय - अपरिमित ज्ञान तथा गुणयुक्त, धर्म-साम्राज्य भावी उत्तम चातुरन्तचक्रवर्ती - चारों गतियों – देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति एवं नरकगति का अन्त करने वाले धर्मचक्र के प्रवर्तक ! अर्हत् - जगत्पूज्य अथवा कर्म-रिपुओं का नाश करने वाले ! आपको नमस्कार हो । इन शब्दो में वह भगवान् को वन्दन करता है, नमन करता है । उनके न अधिक दूर, न अधिक समीप अवस्थित होता हुआ शुश्रुषा करता है, पर्युपासना करता है । अच्युतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्र द्वारा सम्पादित अभिषेक - कृत्य का भी वर्णन करना चाहिए। भवनपति, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र, सूर्य - सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार सहित अभिषेक - कृत्य करते हैं । देवेन्द्र, देवराज ईशान पांच ईशानेन्द्रों की विकुर्वणा करता है - पांच ईशानेन्द्रों के रूप में परिवर्तित
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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