SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पंडगवणाओ असव्वतुअरे ( सव्वपुप्फे सव्वगन्धे सव्वमल्ले सव्वोसहीओ सरसंच गोसीसचन्दणं दिव्वं च) सुमणदामं दद्दरमलयसुगन्धे य गिण्हन्ति २ त्ता एगओ मिलंति २ त्ता जेणेव सामो तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता महत्थं ( महग्धं महारिहं विउलं) तित्थयराभिसेअं उववेतित्ति। ___[१५३] देवेन्द्र, देवराज महान् देवाधिप अच्युत अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है, उनसे कहता देवानुप्रियों ! शीघ्र ही महार्थ-जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न आदि का उपयोग हो, महार्घ-जिसमें भक्ति-स्तवादि का एवं बहुमूल्य सामग्री का प्रयोग हो, महार्ह-विराट् उत्सवमय, विपुल-विशाल तीर्थंकराभिषेक उपस्थापित करो-तदनुकूल सामग्री आदि की व्यवस्था करो। यह सुनकर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। वे उत्तर-पूर्व दिशाभाग में ईशानकोण में जाते हैं । वैक्रियसमुद्घात द्वारा अपने शरीर से आत्मप्रदेश बाहर निकालते हैं। आत्मप्रदेश बाहर निकालकर एक हजार आठ स्वर्णकलश, एक हजार आठ रजतकलश-चाँदी के कलश, एक हजार आठ मणिमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमय कलश-सोने-चाँदी-दोनों से बने कलश, एक हजार आठ स्वर्णमणिमय कलश-सोने और मणियों-दोनों से बने कलश, एक हजार आठ रजत-मणिमय कलश-चाँदी और मणियों से बने कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमणिमय कलश, सोने और चाँदी और मणियों-तीनों से बने कलश, एक हजार आठ भौमेय-मृत्तिकामय कलश, एक हजार आठ चन्दनकलश-चन्दनचर्चित मगंलकलश, एक हजार आठ झारियाँ, एक हजार आठ दर्पण, एक हजार आठ थाल, एक हजार आठ पात्रियाँ-रकाबी जैसे छोटे पात्र. एक हजार आठ सप्रतिष्ठक-प्रसाधनमंजषा. एक हजार आठ विविध रत्नकरंडक-रत्न मंजूषा, एक हजार आठ वातकरंडक-बाहर से चित्रित रिक्त करवे, एक हजार आठ पुष्पचंगेरी-फूलों की टोकरियाँ राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के अभिषेक-प्रसंग में विकुर्वित सर्वविध चंगेरियों, पुष्प-पटलों-फूलों के गुलदस्तों के सदृश चंगेरियाँ, पुष्प-पटल-संख्या में तत्समान, गुण में अतिविशिष्ट, एक हजार आठ सिंहासन, एक हजार आठ छत्र, एक हजार आठ चँवर, एक हजार आठ तैल-समुद्गक-तैल के भाजनविशेष-डिब्बे. (एक हजार आठ कोष्ठ-समदगक. एक हजार आठ पत्र-समदगक. एक हजार आठ चोयसुगन्थित द्रव्यविशेषसमुद्गक, एक हजार आठ तगरसमुद्गक, एक हजार आठ एलासमुद्गक, एक हजार आठ हरितालसमुद्गक, एक हजार आठ हिंगुलसमुद्गक, एक हजार आठ मैनसिलसमुद्गक,) एक हजार आठ सर्षप-सरसों के समुद्गक, एक हजार अठा तालवृन्त-पंखे तथा एक हजार आठ धूपदान-धूप के कुड़छे-इनकी विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों से धूपदान पर्यन्त सब वस्तुएँ लेकर, जहाँ क्षीरोद समुद्र हैं, वहाँ आकर क्षीररूप उदक-जलग्रहण करते हैं। क्षीरोदक गृहीत कर उत्पल, पद्म, सहस्रपत्र आदि लेते हैं। पुष्करोद समुद्र से जल आदि लेते हैं। समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्रवर्ती पुष्करवर द्वीपार्ध के भरत, ऐरवत के मागध आदि तीर्थों का जल तथा मृत्तिका लेते है। वैसा कर गंगा आदि महानदियों का जल एवं मृतिका ग्रहण करते हैं। फिर क्षुद्र हिमवान् पर्वत के तुबर-आमलक आदि सब कषायद्रव्य-कसैले पदार्थ, सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब प्रकार की मालाएँ, सब
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy