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________________ पञ्चम वक्षस्कार] [३१५ प्रकार की औषधियाँ तथा सफेद सरसों लेते हैं। उन्हें लेकर पद्मद्रह से उसका जल एवं कमल आदि ग्रहण करते हैं। ____ इसी प्रकार समस्त कुलपर्वतों-सर्वक्षेत्रों को विभाजित करने वाले हिमवान् आदि पर्वतों, वृत्तवैताढ्य पर्वतों, पद्म आदि सब महाद्रहों, भरत आदि समस्त क्षेत्रों, कच्छ आदि सर्व चक्रवर्ति-विजयों, माल्यवान्, चित्रकूट आदि वक्षस्कार पर्वतों, ग्राहावती आदि अन्तर-नदियों से जल एवं मृत्तिका लेते हैं। (देवकुरु से) उत्तरकुरु से पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्व भरतार्ध, पश्चिम भरतार्ध आदि स्थानों से सुदर्शन-पूर्वार्धमेरु के भद्रशाल वन पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य (सब प्रकार के पुष्प-सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ) एवं सफेद सरसों लेते हैं । इसी प्रकार नन्दनवन से सर्वविध कषायद्रव्य, सफेद सरसों, सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य पुष्पमाला लेते हैं। इसी भांति सौमनस एवं पण्डक वन से सर्व-कषाय-द्रव्य (सर्व पुष्प, सर्व गन्ध, सर्व माल्य, सर्वोषधि, सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य) पुष्पमाला एवं दर्दर और मलय पर्वत पर उद्भुत चन्दन की सुगन्ध से आपूर्ण सुरभिमय पदार्थ लेते हैं। ये सब वस्तुएँ लेकर एक स्थान पर मिलते हैं। मिलकर जहाँ स्वामी-भगवान् तीर्थंकर होते हैं, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर महार्थ (महाघ, महार्ह, विपुल) तीर्थंकराभिषेकोपयोगी क्षीरोदक आदि वस्तुएँ उपस्थित करते हैं-अच्युतेन्द्र के संमुख रखते हैं। अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक : देवोल्लास १५४. तए णं से अच्चुए देविन्दे दसहिं सामाणिअसाहस्सीहिं, तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं, चउहिं लोगपालेहिं, तिहिं परिसाहि, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणिआहिवईहिं, चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे तेहिं साभाविएहिं विउव्विएहिं अवरकमलपइट्ठाणेहिं, सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहि, चन्दणकयचच्चाएहिं, आविद्धकण्ठेगुणेहिं, पउमुप्पलपिहाणेहिं, करयलसुकुमारपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवण्णिआणंकलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेज्जाणं (अट्ठसहस्सेणं चन्दनकलसाणं) सव्वोदएहिं, सव्वमट्टिआहिं, सव्वतुअरेहिं, (सव्वपुप्फेहिं, सव्वगन्धेहिं सव्वमल्लेहिं ) सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विड्डीए जाव १ रवेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं, तए णं सामिस्स अभिसेअंसि वट्टमाणंसिइंदाइआ देवा छत्तचामरधूवकडुच्छअपुष्फगन्ध ( मल्लचुण्णाइ) हत्थगया हट्ठतुट्ठ जाव वजसूलपाणी पुरओ चिटुंति पंजलिउडा इति, एवं विजयाणुसारेण (अप्पेगइआ, देवा पंडगवणं मंचाइमंचकलिअंकाति,) अप्पेगइआ देवा आसिअसंमजिओवलित्तसित्तसुइसम्मट्ठरत्थंतरावणवीहिअंकरेंति, (कालागुरुपवकुंदरुक्कतुरुक्क डझंतधूवमघमघतगंधुद्धआभिरामं सुगंधवरगंधियं) गन्धवट्टिभूअंति, अप्पेगइआ हिरण्णवासं वासिंति एवं सुवण्ण-रयण-वइर-आभरण-पत्त-पुप्फ-फल-बीअ-मल्ल-गन्ध १. देखें सूत्र संख्या ५२ २. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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