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________________ पञ्चम वक्षस्कार] [३१३ को छोड़कर उत्तरीय भवनपति इन्द्रों के दक्ष नामक पदाति-सेनाधिपति है। इसी प्रकार व्यन्तरेन्द्रों तथा ज्योतिष्केन्द्रों का वर्णन है। इतना अन्तर है-उनके चार हजार सामानिक देव, चार अग्रमहिषियाँ तथा सोलह हजार अंगरक्षक देव हैं, विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण तथा महेन्द्रध्वज एक सौ पच्चीस योजन विस्तीर्ण है। दाक्षिणात्यों की मंजुस्वरा तथा उत्तरीयों की मंजुघोषा घण्टा है। उनके पदाति-सेनाधिपति तथा विमानकारीविमानों की विकुर्वणा करने वाले आभियोगिक देव हैं। ज्योतिष्केन्द्रों की सुस्वरा तथा सुस्वरनिर्घोषा-चन्द्रों की सुस्वरा एवं सूर्यों की सुस्वरनिर्घोषा नामक घण्टाएं हैं। वे मन्दर पर्वत पर समवसृत होते हैं, पर्युपासना करते हैं। अभिषेक-द्रव्य : उपस्थापन १५३. तए णं से अच्चुए देविन्दे देवराया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सद्दावेड़ २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! महत्थं, महग्धं, महारिहं,विउलं तित्थयराभिसेअंउवट्ठवेह। तएणं ते आभिओगा देवा हट्टतुटु जाव' पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमंदिसीभागंअवक्कमन्ति २ त्ता वेउव्विअसमुग्घाएणं (समोहणंति) समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोवण्णिअकलसाणं एवं रुप्पमयाणं, मणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमयाणं,सुवण्णमणिमयाणं, रुप्पमणिमयाणं,सवण्णरुप्पमणिमयाणं, अट्ठसहस्सं भोमिज्जाणं, अट्ठसहस्सं चन्दणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, आयंसाणं, थालाणं, पाईणं, सुपइट्ठगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, वायकरंडगाणं, पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सव्वचंगेरीओ सव्वपडलगाइं विसेसिअतराई भाणिअव्वाइं, सीहसणछत्रचामरतेल्लसमुग्ग (कोट्ठसमुग्गे, पत्त-चोएअ-तगरमेलाय-हरिआल-हिंगुलय-मणोसिला) सरिसवसमुग्गा, तालिअंटा अट्ठसहस्संकडुच्छुगाणं विउव्वंति, विउव्वित्ता साहाविए विउव्विए अकलसे जाव कडुच्छुए अगिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे, तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हन्ति २ त्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाई जाव २ सहस्सपत्ताई ताई गिण्हन्ति, एवं पुक्खरोदाओ, (समय-खित्ते) भरहेरवयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं मट्टिअंचगिण्हन्ति २ त्ता एवं गंगाईणं महाणईणं ( उदगं मट्टिअं च गिण्हन्ति), चुल्लहिमवन्ताओ सव्वतुअरे, सव्वपुप्फे, सव्वगन्धे, सव्वमल्ले, सव्वोसहीओ सिद्धत्थए य गिण्हन्ति २ त्ता पउमद्दहाओ दहोअगं उप्पलादीणि अ। एवं सव्वकुलपव्वएसु, वट्टवेअद्धेसु सव्वमहद्दहेसु, सव्ववासेसु, सव्वचक्कवट्टिविजएसु, वक्खार-पव्वएसु, अंतरणईसु विभासिज्जा। (देवकुरुसु) उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभद्दसालवणे सव्वतुअरे (सव्वपुप्फे सव्वगन्धे सव्वमल्ले सव्वोसहीओ) सिद्धत्थए य गिण्हन्ति, एवं णन्दणवणाओ सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थए य सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हन्ति, एवं सोमणस १. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र संख्या ७५ ३. देखें सूत्र यही
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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