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________________ ३०८] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र हीरकमय, वर्तुलाकार-गोल, लष्ट-मनोज्ञ संस्थान युक्त, सुश्लिष्ट-मसूण, चिकने, परिघृष्ट-कठोर शाण पर तराशी हुई, रगड़ी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, मृष्ट-सुकोमल शाण पर घिसी हुई पाषाणप्रतिमा की ज्यों चिकनाई लिये हुए मृदुल, सुप्रतिष्ठित-सीधे संस्थित, विशिष्ट अतिशय युक्त, अनेक, उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों-छोटी पताकाओं से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय-वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सशोभित, तंग-उन्नत. आकाश को छते हए शिखर से यक्त. एक हजार योजन ऊँचे अति महत्-विशाल, महेन्द्रध्वज से युक्त) चौरासी हजार सामानिक देवों (आठ सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, चारों ओर चौरासी-चौरासी हजार अंगरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से देवों और देवियों) से संपरिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि-वैभव के साथ, वाद्य-निनाद के साथ सौधर्मकल्प के बीचोंबीच होता हुआ, दिव्य देव-ऋद्धि (देव-द्युति, देवानुभाव-देव प्रभाव) उपदर्शित करता हुआ, जहाँ सौधर्मकल्प का उत्तरी निर्याण-मार्ग-बाहर निकलने का रास्ता है, वहाँ आता है। वहाँ आकर एक-एक लाख योजन-प्रमाण विग्रहों-गन्तव्य क्षेत्रातिक्रम रूप गमनक्रम द्वारा चलता हुआ, उत्कृष्ट, तीव्र देव-गति द्वारा आगे बढ़ता तिर्यक्-तिरछे असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, दक्षिण-पूर्व-आग्नेय कोणवर्ती रतिकर पर्वत है, वहाँ आता है। जैसा सूर्याभदेव का वर्णन है, आगे वैसा ही शक्रेन्द्र का समझना चाहिए। फिर शक्रेन्द्र दिव्य देव-ऋद्धि का दिव्य यान-विमान का प्रतिसंहरण-संकोचन करता है-विस्तार को समेटता है। वैसा कर, जहाँ ( जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र) भगवान् तीर्थंकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन होता है, वहाँ आता है। आकर वह दिव्य यान-विमान द्वारा भगवान् के जन्मभवन की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन के उत्तर-पर्व में-ईशानकोण में अपने दिव्य विमान को भूमितल से चार अंगुल ऊँचा ठहराता है। विमान को ठहराकर अपनी आठ अग्रमहिषियों, गन्धर्वानीक तथा नाट्यानीक नामक दो अनीकों सेनाओं के साथ उस दिव्य-यान-विमान से पूर्वदिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा नीचे उतरता है फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र के चौरासी हजार सामानिक देव उत्तरदिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा उस दिव्य यान-विमान से नीचे उतरते हैं। बाकी के देव-देवियाँ दक्षिण-दिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा यान-विमान से नीचे उतरते हैं। तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र चौरासी हजार सामानिक आदि अपने सहवर्ती देव-समुदाय से संपरिवृत, सर्व ऋद्धि-वैभव-समायुक्त, नगाड़ों के गूंजते हुए, निर्घोष के साथ, जहाँ भगवान् तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है। आकर उन्हें देखते ही प्रणाम करता है। भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर, हाथ जोड़, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक पर घुमाकर भगवान् तीर्थंकर की माता को कहता है रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकररूप रत्न को धारण करने वाली ! जगत्प्रदीपदायिकेजगद्वर्ती जनों को सर्वभाव प्रकाशक तीर्थंकररूप दीपक प्रदान करने वाली ! आपको नमस्कार हो। (समस्त
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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