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________________ [ ३०७ पञ्चम वक्षस्कार ] तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे सक्के पुरओ वज्जपाणी पकड्ढइति । तए णं से सक्के देविन्दे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइ - वाणमन्तर - जोइस - वेमाणिए देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव ' णाइएणं ताए उक्कििाट्ठाए जाव र वीईयमाणे जेणेव मन्दरे पव्वए, जेणेव पंडगवणे, जेणेव अभिसेअसिला, जेणेव अभिसेअसीहासणे, तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति । २ [१५०] पालक देव द्वारा यान- विमान की रचना संपन्न कर दिये जाने का संवाद सुनकर (देवेन्द्र, देवराज) शक्र मन में हर्षित होता है । जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है । वैसा कर वह सपरिवार आठ अग्रमहिषियों- प्रधान देवियों, नाट्यानीकनाट्य-सेना, गन्धर्वानीक— गन्धर्वसेना के साथ उस यान - विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से - तीन सीढियों द्वारा विमान पर आरूढ होता है । विमानारूढ होकर ( जहाँ सिंहासन है, वहाँ आता है। वहाँ आकर) वह पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है । उसी प्रकार सामानिक देव उत्तरी त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ होकर पूर्वन्यस्त- पहले से रखे हुए उत्तम आसनों पर बैठ जाते हैं । बाकी के देव-देवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपनक से विमान पर आरूढ होकर (अपने लिए पूर्व- न्यस्त उत्तम आसनों पर) उसी तरह बैठ जाते हैं । शक्र के यों विमानारूढ होने पर आगे आठ मंगलक - मांगलिक द्रव्य प्रस्थित होते हैं। तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में समायोजित, प्रयाण - प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चँवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊँची, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय - वैजयन्ती से क्रमश: आगे प्रस्थान करते हैं । तदनन्तर छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल झारी, फिर वज्ररत्नमय, वर्तुलाकार, लष्ट - मनोज्ञ संस्थानयुक्त, सुश्लिष्ट - मसूण - चिकना, परिघृष्ट - कठोर शाण पर तशी हुई, रगड़ी हुई पाषाण - प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, मुष्ट - सुकोमल शाण पर घिसी हुई पाषाण - प्रतिमा की तरह चिकनाई लिये हुए, मृदुल, सुप्रतिष्ठित - सीधा संस्थित, विशिष्ट - अतिशययुक्त, अनेक उत्तम पंचरंगी हजारों कुडभियों-छोटी पताकाओं से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय - वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंग-उन्नत आकाश को छूते हुए से शिखर युक्त एक हजार योजन ऊँचा, अतिमहत्—विशाल महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है। उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेष से युक्त, सुसज्जित, सर्वविध अलंकारों से विभूषित पाँच सेनाएँ, पाँच सेनापति - देव ( तथा अन्य देव ) प्रस्थान करते हैं । फिर बहुत से आभियोगिक देव-देवियाँ अपने-अपने रूप, (अपने-अपने वैभव, अपने-अपने) नियोगउपकरण सहित देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे पीछे यथाक्रम प्रस्थान करते हैं। तत्पश्चात् सौधर्मकल्पवासी अनेक देव-देवियाँ सब प्रकार की समृद्धि के साथ विमानारूढ होते हैं, देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे पीछे तथा दोनों ओर प्रस्थान करते 1 इस प्रकार विमानस्थ देवराज शक्र पाँच सेनाओं से परिवृत (आगे प्रकृष्यमाण - निर्गम्यमान वज्ररत्नमय
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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