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पञ्चम वक्षस्कार]
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जगत के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप-सकल-जगद्भावदर्शक, मूर्त-चक्षुाह्य, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करनेवाली, विभु-सर्वव्यापकसमस्त श्रोतृवृन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि-वाग्वैभव से युक्त जिन-राग-द्वेष विजेता, ज्ञानी-सातिशय ज्ञानयुक्त, नायक, धर्मवरचक्रवर्तीउत्तम धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले, बुद्ध-ज्ञाततत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्वबोध देने वाले, समस्त लोक के नाथ–समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम-ममतारहित, उत्तम क्षत्रिय-कुल में उद्भूत, लोकोत्तम-लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान् की आप जननी हैं।) आप धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं एवं कृतार्थ-कृतकृत्य हैं । देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनाऊँगा, अतः आप भयभीत मत होना।' यों कहकर वह तीर्थंकर की माता को अवस्वापिनीदिव्य मायामयी निद्रा में सुला देता है। फिर वह तीर्थंकर-सदृश प्रतिरूपक-शिशु की विकुर्वणा करता है। उसे तीर्थंकर की माता के बगल में रख देता है। १ शक्र फिर पाँच शक्रों की विकुर्वणा करता है-वैक्रियलब्धि द्वारा स्वयं पाँच शक्रों के रूप में परिणत हो जाता है। एक शक्र भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा उठाता है, एक शक्र पीछे. छत्र धारण करता है, दो शक्र दोनों ओर चँवर डुलाते हैं, एक हाथ में वज्र लिये आगे चलता है।
तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देव-देवियों से घिरा हुआ, सब प्रकार ऋद्धि से शोभित, उत्कृष्ट, त्वरित देव-गति से चलता हुआ, जहाँ मन्दरपर्वत, पण्डकवन, अभिषेक-शिला एवं अभिषेक-सिंहासन है, वहाँ आता है, पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठता है। ईशान प्रभृति इन्द्रों का आगमन
१५१. तेणंकालेणं तेणंसमएणं ईसाणे देविन्दे, देवराया, सूलपाणी, वसभवाहणे, सुरिन्दे, उत्तरद्धलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई अरयंवरवत्थधरे एवं जहा सक्के इमं णाणत्तं-महाघोसा घण्टा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई, पुष्फओ विमाणकारी, दक्खिणे निजाणमग्गे, उत्तरपुरस्थिमिल्लो रइकरपव्वओमन्दरे समोसरिओ (वंदइ,णमंसइ) पज्जुवासइत्ति। एवं अवसिट्ठावि इन्दा भाणिअव्वा जाव अच्चुओत्ति, इमं णाणत्तं
चउरासई असीइ, बावत्तरि सत्तरी अ सट्ठी । पण्णा चत्तालीसा, तीसा वीसा दस सहस्सा ॥ एए समाणिआणं, बत्तीसट्ठावीसा बारसट्ठ चउरो सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च
सहस्सारे ॥ आणय-पाणय-कप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिण्णि।
इसका अभिप्राय यह कि यदि कोई निकटवर्ती दुष्ट देव-देवी कुतूहलवश या दुरभिप्रायवश माता की निद्रा तोड़ दे तो माता को पुत्र-विरह का दुःख न हो।