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________________ पञ्चम वक्षस्कार] [३०१ सौधर्म कल्प सुन्दर स्वरयुक्त घण्टाओं की विपुल ध्वनि के संकुल-आपूर्ण हो जाता है। फलतः वहाँ निवास करने वाले बहुत से वैमानिक देव, देवियाँ जो रतिसुख में प्रसक्त-अत्यन्त आसक्त तथा नित्य प्रमत्त रहते हैं, वैषयिक सुख में मूर्च्छित रहते हैं, शीघ्र प्रतिबुद्ध होते हैं-जागरित होते हैं-भोगमयी मोहनिद्रा से जागते हैं। घोषणा सुनने हेतु उनमें कुतूहल उत्पन्न होता है-वे तदर्थ उत्सुक होते हैं। उसे सुनने में वे कान लगा देते हैं, दत्तचित्त हो जाते हैं। जब घण्टा ध्वनि निःशान्त-अत्यन्त मन्द, प्रशान्त-सर्वथा शान्त हो जाती है, तब शक्र की पदाति सेना का अधिपति हरिनिगमेषी देव स्थान-स्थान पर जोर-जोर से उद्घोषणा करता हुआ इस प्रकार कहता है सौधर्मकल्पवासी बहुत से देवो ! देवियो ! आप सौधर्मकल्पपति का यह हितकर एवं सुखप्रद वचन सुनें-उनकी आज्ञा हैं, आप उन (देवेन्द्र, देवराज शक्र) के समक्ष उपस्थित हों। यह सुनकर उन देवों, देवियों के हृदय हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। उनमें से कतिपय भगवान् तीर्थंकर के वन्दन-अभिवादन हेतु, कतिपय पूजन-अर्चन हेतु, कतिपय सत्कार-सत्वनादि द्वारा गुणकीर्तन हेतु, कतिपय सम्मान-समादर-प्रदर्शन द्वारा मन:प्रासाद निवेदित करने हेतु, कतिपय दर्शन की उत्सुकता से अनेक जिनेन्द्र भगवान् के प्रति भक्तिअनुरागवश तथा कतिपय इसे अपना परंपरानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियो को अविलम्ब अपने समक्ष उपस्थित देखता है। देखकर प्रसन्न होता है। वह अपने पालक नामक आभियोगिक देवो को बुलाता है। बुलाकर उसे कहता हैं देवानुप्रिय ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित, क्रोडोद्यत पुत्तलियों से कलित-शोभित, ईहामृग-वृक, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरु संज्ञक मृग, शरभ-अष्टापद, चमर-चँवरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकन से युक्त, खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिका द्वारा सुन्दर प्रतीयमान, संचरणशील सहजात पुरुष-युगल की ज्यों प्रतीत होते चित्रांकित विद्याधरों से समायुक्त, अपने पर जड़ी सहस्रों मणियों तथा रत्नों की प्रभा से सुशोभित, हजारों रूपकों-चित्रों से सुहावने, अतीव देदीप्यमान, नेत्रों में समा जाने वाले, सुखमय स्पर्शयुक्त, सश्रीक-शोभामय रूपयुक्त, पवन से आन्दोलित घण्टियों की मधुर, मनोहर ध्वनि से युक्त, सुखमय, कमनीय, दर्शनीय, कलात्मक रूप में सज्जित, देदीप्यमान मणिरत्नमय घण्टिकाओं के समूह से परिव्याप्त, एक हजार योजन विस्तीर्ण, पाँच सौ योजन ऊँचे, शीघ्रगामी, त्वरितगामी, अतिशय वेगयुक्त एवं प्रस्तुत कार्य-निर्वहण में सक्षम दिव्य यान-विमान की विकुर्वणा करो। आज्ञा का परिपालन कर सूचित करो। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वर्णित शक्रेन्द्र के देव-परिवार तथा विशेषणों आदि का स्पष्टीकरण इस प्रकार है सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र के तीन परिषद् होती हैं-शमिता-अभ्यान्तर, चण्डा-मध्यम तथा जाता-बाह्य। आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियाँ, मध्यम परिषद् में चौदह
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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