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________________ ३०० ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ऐसा कहकर वह भगवान् को वन्दन करता है, नमन करता है। वन्दन-नमन कर वह पूर्व की ओर मुँह करने उत्तम सिंहासन पर बैठे जाता है। तब देवेन्द्र, देवराज शक्र के मन में ऐसा संकल्प, भाव उत्पन्न होता है-जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। भूतकाल में हुए, वर्तमान काल में विद्यमान, भविष्य में होनेवाले देवेन्द्रों, देवराजों शक्रों का यह परंपरागत आचार है कि वे तीर्थंकरों का जन्म-महोत्सव मनाएं। इसलिए मैं भी जाऊँ, भगवान् तीर्थंकर का जन्मोत्सव समायोजित करूं। देवराज शक्र ऐसा विचार करता है, निश्चय करता है। ऐसा निश्चय कर वह अपनी पदातिसेना के अधिपति हरिनिगमेषी ' नामक देव को बुलाता है। बुलाकर उससे कहता है-'देवानुप्रिय ! शीघ्र ही सुधर्मा सभा में मेघसमूह के गर्जन के सदृश गंभीर तथा अति मधुर शब्दयुक्त, एक योजन वर्तुलाकार, सुन्दर स्वर युक्त सुघोषा नामक घण्टा को तीन बार बजाते हुए, जोर जोर से उद्घोषणा करते हुए कहो-देवेन्द्र, देवराज शक्र का आदेश है-वे जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाने जा रहे हैं। देवानुप्रियो ! आप सभी अपनी सर्वविध ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूति, विभूषा, नाटक-नृत्य-गीतादि के साथ, किसी भी बाधा को पर्वाह ने करते हुए सब प्रकार के पुष्पों, सुरभित पदार्थों, मालाओं तथा आभूषणों से विभूषित होकर दिव्य, तुमुल ध्वनि के साथ महती ऋद्धि (महती द्युति, महत् बल, महनीय समुदय, महान् आदर, महती विभूति, महती विभूषा, बहुत बड़े ठाठबाट, बड़े-बड़े नाटको के साथ, अत्यधिक बाधाओं के बावजूद उत्कृष्ट पुष्प, गन्ध, माला, आभरण-विभूषित) उच्च, दिव्य वाद्यध्वनिपूर्वक अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने विमानों पर सवार होकर विलम्ब न कर शक्र (देवेन्द्र, देवराज) के समक्ष उपस्थित हों।' देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार आदेश दिये जाने पर हरिनिगमेषी देव हर्षित होता है, परितुष्ट होता है, देवराज शक्र का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार करता है। आदेश स्वीकार कर शक्र के पास से प्रतिनिष्क्रान्त होता है-निकलता है। निकलकर, जहाँ सुधर्मा सभा है एवं जहाँ मेघसमूह के गर्जन के सदृश गंभीर तथा अति मधुर शब्द युक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा नामक घण्टा है, वहाँ जाता है। वहाँ जाकर बादलों के गर्जन के तुल्य एवं गंभीर एवं मधुरतम शब्द युक्त एक योजन गोलाकार सुघोषा घण्टा को तीन बार बजाता है। मेघसमूह के गर्जन की तरह गंभीर तथा अत्यन्त मधुर ध्वनि से युक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा घण्टा के तीन बार बजाये जाने पर सोधर्म कल्प में एक कम बत्तीस लाख विमानों में एक कम बत्तीस लाख घण्टाएँ एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं, बजने लगती हैं। सौधर्म कल्प के प्रासादों एवं विमानों के निष्कुट-गम्भीर प्रदेशों, कोनों में आपतित-पहुंचे तथा उनसे टकराये हुए शब्द-वर्गणा के पुद्गल लाखों घण्टा-प्रतिध्वनियों के रूप में समुत्थित होने लगते हैं-प्रकट होने लगते हैं। १. हरेः-इन्द्रस्य, निगमम्-आदेशमिच्छतीति हरिनिगमेषी-तम्, अथवा इन्द्रस्थ नैगमेषी नामा देवः-तम्। __ (इन्द्र के निगम-आदेश को चाहने वाला अथवा इन्द्र का नैगमेषी नामक देव) -जम्बूद्वीप. शान्तिचन्द्रीयावृत्ति, पत्र ३९७
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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