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पञ्चम वक्षस्कार]
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से सम्पन्न, आदिकर-अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थंकर-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ प्रवर्तक, स्वयंसंबुद्ध-स्वयं बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम-पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह-आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह सदृश, पुरुषवरपुण्डरीक-सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ, श्वेत कमल की तरह निर्मल अथवा मनुष्यों में रहते हुए भी कमल की तरह निर्लेप, पुरुषवरगन्धहस्तीउत्तम गन्दहस्ती के सदृश-जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते हैं अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी, लोकोत्तम-लोक के सभी प्राणियों में उत्तम, लोकनाथ-लोक के सभी भव्य प्राणियों के स्वामी उन्हें सम्यग्दर्शन तथा सन्मार्ग प्राप्त कारकर उनका योग-क्षेम १ साधने वाले, लोकहितकर-लोक का कल्याण करने वाले, लोकप्रदीप ज्ञान रूपी दीपक द्वारा लोक का अज्ञान दूर करने वाले अथवा लोकप्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्मपथ पर गतिशील, लोकप्रद्योतकर-लोकअलोक, जीव-अजीव आदि का स्वरूप प्रकाशित करनेवाले अथवा लोक में धर्म का उद्योत फैलाने वाले, अभयदायक-सभी प्राणियों के लिए अभयप्रद-सम्पूर्णत: अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षुदायक-आन्तरिक नेत्र-सद्ज्ञान देनेवाले, मार्गदायक-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप साधनापथ के उद्बोधक, शरणदायक-जिज्ञासु तथा मुमुक्षु जनों के लिए आश्रयभूत, जीवनदायकआध्यात्मिक जीवन के संबल, बोधिदायक-सम्यक् बोध देनेवाले, धर्मदायक-सम्यक् चारित्ररूप धर्म के दाता, धर्मदेशक-धर्मदेशना देनेवाले, धर्मनायक, धर्मसारथि-धर्मरूपी रथ के चालक, धर्मवर चातुरन्तचक्रवर्ती-चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती दीप-दीपकसदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप-संसार-समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान बचाव के आधार, त्राण-कर्म-कदर्थित भव्य प्राणियों के रक्षक, शरण-आश्रय, गति एवं प्रतिष्ठास्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन के धारक, व्यावृत्तछद्मा-अज्ञान आदि आवरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग, द्वेष आदि के विजेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, तीर्ण-संसार-सागर को पार कर जाने वाले, तारकदूसरों को संसार-सागर से पार उतारने वाले, बुद्ध-बोद्धव्य का ज्ञान प्राप्त किये हुए, बोधक-औरों के लिए बोधप्रद, मुक्त-कर्मबन्धन से छूटे हुए, मोचक-कर्मबन्धन से छूटने का मार्ग बतानेवाले, वैसी प्रेरणा देनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-कल्याणमय, अचल-स्थिर, अरुक-निरुपद्रव, अनन्त-अन्तरहित, अक्षय-क्षयरहित, अबाध-बाधारहित, अपुनरावृत्ति-जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में आगम नहीं होता, ऐसी सिद्धिगतिसिद्धावस्था को प्राप्त, भयातीत जिनेश्वरों को नमस्कार हो।
आदिकर, सिद्धावस्था पाने के इच्छुक भगवान् तीर्थंकर को नमस्कार हो।
यहाँ स्थित मैं वहाँ-अपने जन्मस्थान में स्थित भगवान् तीर्थंकर को वन्दर करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझकों देखें।
१. अप्राप्तस्य प्रापणं योग:- जो प्राप्त नहीं है, उसका प्राप्त होना योग कहा जाता है। प्राप्तस्यं रक्षणं क्षेम:- प्राप्त की रक्षा करना क्षेम