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________________ २९८ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र नियन्ता, पाकशासन-पाक नामक शत्रु के नाशक, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों के स्वामी, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी करने वाले, सुरेन्द्र-देवताओं के प्रभु, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किये हुए, उज्ज्वल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित चंचल-हिलते हुए कुण्डलों से जिसके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी, पुष्पमाला पहने हुए, परम ऋद्धिशाली, परम, द्युतिशाली, महान् बली, महान् यशस्वी, परम प्रभावक, अत्यन्त सुखी, सौधर्मकल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में इन्द्रासन पर स्थिर होते हुए बत्तीस लाख विमानों, चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों परिवारसहित आठ अग्रमहिषियों-प्रमुख इन्द्राणियों, तीन परिषदों, सात अनोकों-सेनाओं, सात, अनीकाधिपतियों-सेनापति देवों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों तथा सौधर्मकल्पवासी अन्य बहुत से देवों तथा देवियों का आधिपत्य, पौरोवृत्त्य-अग्रेसरता, स्वामित्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्त्व-सेनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार हो, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व करते हुए, इन सबका पालन करते हुए, नृत्य, गीत, कलाकौशल के साथ बजाये जाते वीणा, झांझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच दिव्य भोगों का आनन्द ले रहा था। सहसा देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित होता है, काँपता है। शक्र (देवेन्द्र, देवराज) जब अपने आसन को चलित देखता है तो वह अवधिज्ञान का प्रयोग करता है। अवधिज्ञान द्वारा भगवान् तीर्थंकर को देखता है। वह हृष्ट तथा परितुष्ट होता है। अपने मन में आनन्द एवं प्रीति–प्रसन्नता का अनुभव करता है। सौम्य मनोभाव और हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठता है। मेघ द्वारा बरसाई जाती जलधारा से आहत कदम्ब के पुष्पों की ज्यों उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं-वह रोमांचित हो उठता है। उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा नेत्र विकसित हो उठते हैं । हर्षातिरेकजनित स्फूर्तावेगवश उसके हाथों के उत्तम कटक-कड़े, त्रुटित-बाहुरक्षिका-भुजाओं को सुस्थिर बनाये रखने हेतु परिधीयमान-धारण की गई आभरणात्मक पट्टिका, केयूर-भुजबन्ध एवं मुकुट सहसा कम्पित हो उठते हैं-हिलने लगते है। उसके कानों मे कुण्डल शोभा पाते हैं। उसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होता है। उसके गले में लम्बी माला लटकती है, आभूषण झूलते हैं। (इस प्रकार सुसज्जित) देवराज शक्र आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठता है। पादपीठ-पैर रखने के पीढ़े पर अपने पैर रखकर नीचे उतरता है। नीचे उतरकर वैडूर्य-नीलम, श्रेष्ठ रिष्ठ तथा अंजन नामक रत्नों से निपुणतापूर्वक कलात्मक रूप में निर्मित, देदीप्यमान, मणि-मण्डित पादुकाएँ पैरों से उतारता है। पादुकाएँ उतार कर अखण्ड वस्त्र का उत्तरासंग करता है। हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधता है, जिस ओर तीर्थंकर थे उस दिशा की ओर सात, आठ कदम आगे जाता है। फिर अपने बायें घुटने को आकुंचित करता है-सिकोड़ता है, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाता है, तीन बार अपना मस्तक भूमि से लगाता है। फिर कुछ ऊँचा उठता है, कड़े तथा बाहरक्षिका से सुस्थिर भुजाओं को उठाता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे (जुड़े हुए) हाथों को मस्तक के चारों ओर घुमाता है और कहता है अर्हत्-इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्म-शत्रुओं के नाशक, भगवान्-आध्यात्मिक ऐश्वर्य आदि
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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