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________________ ३०२] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र हजार देव और छह सौ देवियाँ एवं बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पाँच सौ देवियाँ होती हैं। आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम और देवियों की स्थिति एक पल्योपम की होती है। __अग्रमहिषी परिवार–प्रत्येक अग्रमहिषी-पटरानी-प्रमुख इन्द्राणी के परिवार में पाँच हजार देवियाँ होती हैं। यों इन्द्र के अंन्तःपुर में चालीस हजार देवियों का परिवार होता है। सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-ये पांच सेनाएं होती हैं तथा दो सेनाएँ-गन्धर्वानीक गाने-बजाने वालों का दल और नाट्यनीक-नाटक करने वालों का दल-आमोद-प्रमोद पूर्वक रणोत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। इस सूत्र में शतऋतु तथा सहस्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम आये हैं जो, वैदिक परंपरा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं। जैन परंपरा के अनुसार इन नामों के कारण एवं इनकी सार्थकता इनके अर्थ में आ चुकी है। वैदिक परंपरा के अनुसार इन नामों के कारण अन्य हैं, जो इस प्रकार हैं ___ शतऋतु-ऋतु का अर्थ यज्ञ है। सौ यज्ञ पूर्णरूपेण सम्पन्न कर लेने पर इन्द्र-पद प्राप्त होता है, वैदिक परंपरा में ऐसी मान्यता है। अतः शतऋतु शब्द सौ यज्ञ पूरे कर इन्द्र-पद पाने के अर्थ में प्रचलित है। सहस्राक्ष-इसका शाब्दिक अर्थ हजार नेत्र वाला है। इन्द्र का यह नाम पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है-इन्द्र एक बार मन्दाकिनी के तट पर स्नान करने गया। वहाँ उसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को नहाते देखा। इन्द्र की बुद्धि कामावेश से भ्रष्ट हो गई। उसने देव-माया से गौतम ऋषि का रूप बना लिया और अहल्या का शील भंग किया। इसी बीच गौतम वहाँ पहुँच गये। वे इन्द्र पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उसे फटकारते हुए कहने लगे-तुम तो देवताओं में श्रेष्ठ समझे जाते हो, ज्ञानी कहे जाते हो। पर, वास्तव में तुम नीच, अधम, पतित और पापी हो, योनिलम्पट हो। इन्द्र की निन्दनीय योनिलम्पटता जगत् के समक्ष प्रकट रहे, इसलिए गौतम ने उसकी देह पर सहस्र योनियाँ बन जाने का शाप दे डाला। तत्काल इन्द्र की देह पर हजार योनियाँ उद्भूत हो गई। इन्द्र घबरा गया, ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि ने इन्द्र से कहा-पूरे एक वर्ष तक तुम्हें इस घृणित रूप का कष्ट झेलना ही होगा। तुम प्रतिक्षण योनि की दुर्गन्ध में रहोगे। तदनन्तर सूर्य की आराधना से ये सहस्र योनियाँ नेत्ररूप में परिणत हो जायेंगी-तुम सहस्राक्ष-हजार नेत्रों वाले बन जाओगे। आगे चलकर वैसा ही हुआ, एक वर्ष तक वैसा जघन्य जीवन बिताने के बाद इन्द्र सूर्य की आराधना से सहस्राक्ष बन गया। पालकदेव द्वारा विमानविकुर्वणा १४९. तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ जाव २ वेउव्विअसमुग्घाएणं समोहणित्ता तहेव करेइ इति, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसिं १. ब्रह्मवैवर्त पुराण ४-४७, १९-३२ २. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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