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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र कूडे पण्णत्ते । एगं जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं जमगपमाणेणं णेअव्वं । रायहाणी उत्तरेणं असंखेज्जे दीवे अण्णंमि जम्बूद्दीवे दीवे, उत्तरेणं बारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं हरिस्सहस्स देवस्स हरिस्सहाणामं रायहाणी पण्णत्ता । चउरासीइं जोअणसहस्साइं आयामविक्खम्भेणं, वे जोअणसयसहस्साइं पण्णट्ठि च सहस्साइं छच्च छत्तीसे जोअणसए परिक्खेवेणं, सेसं जहा चमरचञ्चाए रायहाणीए तहा पमाणं भाणिअव्वं, महिड्डीए महज्जुईए । २३६ ] सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ मालवन्ते वक्खारपव्वए २ ? गोयमा ! मालवन्ते णं वक्खारपव्वए तत्थ तत्थ देसे ताहिं २ बहवे सरिआगुम्मा, मालिआगुम्मा जाव मगदन्तिआगुम्मा । ते णं गुम्मा दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमेंति, जे णं तं मालवन्तस्स वक्खारपव्वयस्स बहु समरमणिज्जं भूमिभागं वायविधु अग्गसालामुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिअं करेन्ति । मालवन्ते अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं च णं ( धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए) णिच्चे । [१०९] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर हरिस्सहकूट नामक कूंट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! पूर्णभद्रकूट के उत्तर में, नीलवान् पर्वत के दक्षिण में हरिस्सहकूट नामक कूट बतलाया गया है। वह एक हजार योजन ऊँचा है। उसकी लम्बाई, चौड़ाई आदि सब यमक पर्वत के सदृश है । मन्दर पर्वत के उत्तर में असंख्य तिर्यक् द्वीप समुद्रों को लांघकर अन्य जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तर के बारह हजार योजन जाने पर हरिस्सहकूट के अधिष्ठायक हरिस्सह देव की हरिस्सहा नामक राजधानी आती है। वह ८४००० योजन लम्बी-चौड़ी है। उसकी परिधि २६५६३६ योजन है । वह ऋद्धिमय तथा द्युतिमय है। उसका अवशेष वर्णन चमरेन्द्र की चमरचञ्चा नामक राजधानी के समान समझना चाहिए। भगवान् ! माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत - इस नाम से क्यों पुकारा जाता है ? गौतम ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर जहाँ तहाँ बहुत से सरिकाओं, नवमालिकाओं, मगदन्तिकाओंआदि तत्तत् पुष्पलताओं के गुल्म - झुरमुट हैं। उन लताओं पर पंचरंगे फूल खिलते हैं। वे लताएँ पवन द्वारा प्रकम्पित टहनियाँ के अग्रभाग से मुक्त हुए पुष्पों द्वारा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत के अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग को सुशोभित, सुसज्जित करती हैं । वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त माल्यवान् नामक देव निवास करता है, गौतम ! इस कारण वह माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है। अथवा उसका यह नाम (ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं ) नित्य है । कच्छ विजय ११०. कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, चित्तकूडस्स १. देखें सूत्र संख्या १४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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