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चतुर्थ वक्षस्कार]
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पमाणेहिं णेअव्वा, कूडसरिसणामया देवा।
कहि णं भंते ! मालवन्ते सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?
गोयमा ! कच्छकूडस्स उत्तरपुरथिमेणं, रययकूडस्स दक्खिणेणं एत्थ णं सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते।पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अवसिटुंतं चेव, सुभोगा देवी, रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिट्ठा कूडा उत्तरदाहिणेणं णेअव्वा एक्केणं पमाणेणं।
[१०८] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत माल्यवान् नामक वक्षस्कारपर्वत कहाँ बतलाया गया
गौतम ! मन्दरपर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशानकोण में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तरकुरु के पूर्व में, कच्छ नामक चक्रवर्ति-विजय के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र में माल्यवान् नामक वक्षस्कारपर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। गन्धमादन का जैसा प्रमाण, विस्तार है, वैसा ही उसका है। इतना अन्तर है-वह सर्वथा वैदूर्य रत्नमय है। बाकी सब वैसा ही है।
गौतम ! यावत् कूट-पर्वत-शिखर नौ बतलाये गये हैं-१. सिद्धायतनकूट, २. माल्यवान्कूट, ३. उत्तरकुरुकूट, ४. कच्छकूट, ५. सागरकूट, ६. रजतकूट, ७. शीताकूट, ८. पूर्णभद्रकूट एवं ९. हरिस्सहकूट।
भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतनकूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है ?
गौतम ! मन्दरपर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशानकोण में, माल्यवान् कूट के दक्षिण-पश्चिम में-नैर्ऋत्य कोण में सिद्धायतन नामक कूट बतलाया गया है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा है। राजधानी पर्यन्त बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। माल्यवान् कूट, उत्तरकुरुकूट तथा कच्छकूट की दिशाएँ-प्रमाण आदि सिद्धायतन कूट के सदृश हैं । अर्थात् वे चारों कूट प्रमाण, विस्तार आदि में एक समान हैं। कूटों के सदृश नाम युक्त देव उन पर निवास करते हैं।
भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर सागरकूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है ?
गौतम ! कच्छकूट के उत्तर-पूर्व में-ईशानकोण में और रजतकूट के दक्षिण में सागर कूट नामक कूट बतलाया गया है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। वहाँ सुभोगा नामक देवी निवास करती है। उत्तर-पूर्व में-ईशानकोण में उसकी राजधानी है। रजतकूट पर भोगमालिनी नामक देवी निवास करती है। उत्तर-पूर्व में उसकी राजधानी है। बाकी के कूट-पिछले कूट से अगला कूट उत्तर में, अगले कूट से पिछला कूट दक्षिण में इस क्रम में अवस्थित हैं, एक समान प्रमाणयुक्त हैं। हरिस्सहकूट
१०९. कहि णं भंते ! मालवन्ते हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! पुण्णभद्दस्स उत्तरेणं, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, एत्थ णं हरिस्सहकूडे णामं