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________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [२१७ गौतम ! वहाँ के मनुष्य छह प्रकार के संहनन , छह प्रकार के संस्थान २ वाले होते हैं। वे पाँच सौ धनुष ऊँचे होते हैं। उनका आयुष्य कम से कम अन्तर्मुहूर्त तथा अधिक से अधिक एक पूर्व कोटि का होता है। अपना आयुष्य पूर्ण कर उनमें से कतिपय नरकगामी होते है, (कतिपय तिर्यक्योनि में जन्म लेते हैं, कतिपय मनुष्ययोनि में जन्म लेते हैं, कतिपय देव रूप में उत्पन्न होते हैं,) कतिपय सिद्ध, (बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त) होते हैं, समग्र दु:खों का अन्त करते हैं। भगवन् ! वह महाविदेह क्षेत्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! भरतक्षेत्र, ऐरवतक्षेत्र, हैमवतक्षेत्र, हैरण्यवतक्षेत्र, हरिवर्षक्षेत्र तथा रम्यकक्षेत्र की अपेक्षा महाविदेहक्षेत्र लम्बाई, चौड़ाई, आकार एवं परिधि में विस्तीर्णतर-अति विस्तीर्ण, विपुलतर-अति विपुल, महत्तर-अति विशाल तथा सुप्रमाणतर-अति वृहत् प्रमाणयुक्त है । महाविदेह-अति महान्-विशाल देहयुक्त मनुष्य उसमें निवास करते हैं। परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला महाविदेह नामक देव उसमें निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह महाविदेह क्षेत्र कहा जाता है। इसके अतिरिक्त गौतम ! महाविदेह नाम शाश्वत बतलाया है, जो न कभी नष्ट हुआ है, न कभी नष्ट होगा। गन्धमादन-वक्षस्कारपर्वत १०३. कहि णं भंते महाविदेहवासे गन्धमायणे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा !णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्सदाहिणेणं, मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं, गंधिलावइस्स विजयस्स पुरच्छिमेणं, उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे। तीसं जोअणसहस्साई दुण्णि अ णउत्तरे जोअणसए छच्च य एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं।णीलवंतवासहरपव्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाई उव्वेहेणं, पञ्च जोअणसयाई विक्खंभेणं। तयणंतरं च णं मायाए २ उस्सेहुव्वेहपरिवद्धीए परिवद्धमाणे २, विक्खंभपरिहाणीए परिहायमाणे २ मंदरपव्वयंतेणं पञ्च जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च गाउअसयाई उव्वेहेणं, अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते।गयदन्तसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे।उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहिं अवणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। गंधमायणस्सणंवक्खारपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे।(तासिणंआभिओगसेढीणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे देवा य देवीओ अ) आसरांति। १. १. वज्रऋषभनाराच, २. ऋषभनाराच, ३. नाराच, ४. अर्धनाराच, ५. कीलक तथा ६. सेवार्त। २. १. समचतुरस्र, २. न्यग्रोधपरिमंडल, ३. स्वाति, ४. वामन, ५. कुब्ज तथा ६. हुंड।
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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