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________________ २१२] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। वह दो ओर लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। वह अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। वह ४०० योजन ऊँचा है, ४०० कोस जमीन में गहरा है। वह १६८४२२/,. योजन चौड़ा है। ___ . उसकी बाहा-पार्श्व-भुजा पूर्व-पश्चिम में २०१६५२॥.. योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा (पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है, पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है।) ९४१५६२/. योजन लम्बाई लिये है। दक्षिण की ओर स्थित उसके धनुपृष्ठ की परिधि १२४३४६९), योजन है। उसका रुचकस्वर्णाभरणविशेष के आकार जैसा आकार है। वह सम्पूर्णतः तपनीय स्वर्णमय है, स्वच्छ है। वह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा सब ओर से घिरा है। निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर एक बहुत समतल तथा सुन्दर भूमिभाग है, जहाँ देव-देवियाँ निवास करते हैं। उस बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग में ठीक बीच में एक तिगिंछद्रह (पुष्परजोद्रह) नामक द्रह है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। वह ४०० योजन लम्बा २००० योजन चौड़ा तथा १० योजन जमीन में गहरा है। वह स्वच्छ,स्निग्ध-चिकना तथा रजतमय तटयुक्त है। उस तिगिंछद्रह के चारों ओर तीन-तीन सीढ़ियाँ बनीं हैं। लम्बाई, चौड़ाई के अतिरिक्त उस (तिगिछद्रह) का सारा वर्णन पद्मद्रह के समान है। परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम के आयुष्य वाली धृति नामक देवी वहाँ निवास करती है। उसमें विद्यमान कमल आदि के वर्ण, प्रभा आदि तिगिच्छ-परिमल-पुष्परज के सदृश हैं। अतएव वह तिगिंछद्रह कहलाता है। १०१. तस्स णं तिगिंछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोअणसहस्साइंचत्तारि अएकवीसेजोअणसए एगंच एगणवीसइभागंजोअणस्सदाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं(मुत्तावलिहारसंठिएणं) साइरेगचउजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। एवं जा चेव हरिकन्ताए वत्तव्वया सा चेव हरीएवि णेअव्वा। जिभिआए, कुंडस्स, दीवस्स, भवणस्स तं चेव पमाणं अट्ठोऽवि भाणिअव्वो जाव अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरत्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ।तं चेव पवहे अमुहमूले अपमाणं उव्वेहो अ जो हरिकन्ताए जाव वणसंडसंपरिक्खित्ता। तस्स णं तिगिंछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महाणई पवूढा समाणी सत्त जोअणसहस्साइं चत्तारि अएगवीसे जोअणसए एगंच एगूणवीसइभागं जोअणस्स।उत्तराभिमुही पव्वएणंगंता महया घडमुहपवित्तिएणंजाव साइरेगचउजोअणसइएणं पवाएणंपवडइ।सीओआ णं महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णत्ता। चत्तारि जोअणाई आयामेणं, पण्णासंजोअणाइं विक्खंभेणं,जोअणं बाहल्लेणं,मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिआ,सव्ववइरामई अच्छा। १. देखें सूत्र संख्या १२
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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