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________________ चतुर्थ वक्षस्कार ] १९ बहती है, गंगावर्तकूड के पास से वापस मुड़ती है, ५२३३ / ९ योजम दक्षिण की ओर बहती है। घड़े के मुंह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के बने हार के सदृश आकार में वह प्रपात-कुण्ड में गिरती है । प्रपात - कुण्ड में गिरते समय उसका प्रवाह चुल्ल हिमवान् पर्वत के शिखर से प्रपात-कुण्ड तक कुछ अधिक सौ योजन होता है । [१९५ जहाँ गंगा महानदी गिरती है, वहाँ एक जिह्विका - जिह्वा की - सी आकृतियुक्त प्रणालिका है। वह प्रणालिका आधा योजन लम्बी तथा छह योजन एवं एक कोस चौड़ी है । वह आधा कोस मोटी है । उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुँह जैसा है। वह सम्पूर्णतः हीरकमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। गंगा महानदी जिसमें गिरती है, उस कुण्ड का नाम गंगाप्रपातकुण्ड है। वह बहुत बड़ा है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई साठ योजन है । उसकी परिधि एक सौ नब्बे योजन से कुछ अधिक है । वह दस योजन गहरा है, स्वच्छ एवं सुकोमल है, रजतमय कूलयुक्त है, समतल तटयुक्त है, हीरकमय पाषाणयुक्त हैवह पत्थरों के स्थान पर हीरों से बना है। उसके पैंदे में हीरे हैं । उसकी बालू स्वर्ण तथा शुभ्र रजतमय है । उसके तट के निकटवर्ती उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि - नीलम तथा स्फटिक - बिल्लौर की पट्टियों से बने हैं। उसमें प्रवेश करने एवं बाहर निकलने के मार्ग सुखावह हैं। उसके घाट अनेक प्रकार की मणियों से बँधे हैं। वह गोलाकार है । उसमें विद्यमान जल उत्तरोत्तर गहरा और शीतल होता गया है । वह कमलों के पत्तों, कन्दों तथा नालों से परिव्याप्त है। अनेक उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शत-सहस्रपत्र—इन विविध कमलों के प्रफुल्लित किञ्जल्क से सुशोभित है । वहाँ भौरे कमलों का परिभोग करते हैं। उसका जल स्वच्छ, निर्मल और पथ्य - हितकर है। वह कुण्ड जल से आपूर्ण है । इधर-उधर घूमती हुई मछलियों, क्छुओं तथा पक्षियों के समुन्नत - उच्च, मधुर स्वर से वह मुखरित गुंजित रहता है, सुन्दर प्रतीत होता है । वह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। वेदिका, वनखण्ड तथा कमलों का वर्णन पूर्ववत् कथनीय है, ज्ञातव्य है । : उस गंगाप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में- पूर्व, दक्षिण तथा पश्चिम में तीन-तीन सीढ़ियां बनी हुई हैं । उन सीढ़ियों का वर्णन इस प्रकार है। उनके नेम-भूभाग से ऊपर निकले हुए प्रदेश वज्ररत्नमय - हीरकमय हैं । उनके प्रतिष्ठान - सीढ़ियों के मूल प्रदेश रिष्टरत्नमय हैं। उनके खंभे वैडूर्यरत्नमय हैं। उनके फलकपट्ट-पाट सोने-चाँदी से बने हैं। उनकी सूचियाँ - दो-दो पाटों को जोड़ने की कीलक लोहिताक्ष-संज्ञक रत्न निर्मित हैं। उनकी सन्धियाँ - दो-दो पाटों के बीच के भाग वज्ररत्नमय हैं। उनके आलम्बन - चढ़ते उतरते समय स्खलननिवारण हेतु निर्मित आश्रयभूत स्थान आलम्बनवाह - भित्ति- प्रदेश विविध प्रकार की मणियों से बने हैं। - तीनों दिशाओं में विद्यमान उन तीन-तीन सीढ़ियों के आगे तोरण-द्वार बने हैं। वे अनेकविध रत्नों से सज्जित हैं, मणिमय खंभों पर टिके हैं, सीढ़ियों के सन्निकटवर्ती हैं। उनमें बीच-बीच में विविध तारों, के आकार में बहुत प्रकार के मोती जड़े हैं। वे ईहामृग - वृक, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर,
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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