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________________ १९६ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र रुरुसंज्ञक मृग, शरभ-अष्टापद, चमर-चंवरी गाय, हाथी, वनलता पद्मलता आदि के चित्रांकनों से सुशोभित हैं। उनके खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिकाएँ बड़ी सुहावनी लगती हैं। उन पर चित्रित विद्याधर-युगलसहजात-युगल-एकसमान, एक आकारयुक्त कठपुतलियों की ज्यों संचरणशील से प्रतीत होते हैं। अपने पर जड़े हजारों रत्नों की प्रभा से वे सुशोभित हैं। अपने पर बने सहस्रों चित्रों से वे बड़े सुहावने एवं अत्यन्त देदीप्यमान हैं, देखने मात्र से नेत्रों में समा जाते हैं। वे सुखमय स्पर्शयुक्त एवं शोभामय रूपयुक्त हैं। उन पर जो घंटियाँ लगी हैं, वे पवन से आन्दोलित होने पर बड़ा मधुर शब्द करती हैं, मनोरम प्रतीत होती हैं। उन तोरण-द्वारों पर स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ-आठ मंगल-द्रव्य स्थापित हैं। काले चँवरों की ध्वजाएँ-काले चँवरों से अलंकृत ध्वजाएँ, (नीले चँवरों की ध्वजाएँ, हरे चँवरों की ध्वजाएँ, तथा सफेद चँवरों की ध्वजाएँ, जो उज्ज्वल एवं सुकोमल हैं, उन पर फहराती हैं। उनमें रुपहले वस्त्र लगे हैं। उनके दण्ड, जिनमें वे लगी हैं, वज्ररत्न-निर्मित हैं। कमल की सी उत्तम सुगन्ध उनसे प्रस्फुटित होती है। वे सुरम्य हैं, चित्त को प्रसन्न करनेवाली हैं। उन तोरण-द्वारों पर बहुत से छत्र, अतिछत्र-छत्रों पर लगे छत्र, पताकाएँ, अतिपताकाएँ-पताकाओं पर लगी पताकाएँ, दो-दो घंटाओं की जोड़ियाँ, दो-दो चँवरों की जोड़ियाँ लगी हैं। उन पर उत्पलों, पद्मों, (कुमुदों, नलिनों, सौगन्धिकों, पुण्डरीकों, शतपत्रों, सहस्रपत्रों,) शत-सहस्रपत्रोंएतत्संज्ञक कमलों के ढेर के ढेर लगे हैं, जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ एवं सुन्दर हैं। __ उस गंगाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में गंगाद्वीप नामक एक विशाल द्वीप है। वह आठ योजन लम्बाचौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक पच्चीस योजन है। वह जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा हुआ है. वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। गंगाद्वीप पर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में गंगा देवी का विशाल भवन है। वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा तथा कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह सैकड़ों खंभों पर अवस्थित है। उसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है। उस पर शय्या है। परम ऋद्धिशालिनी गंगादेवी का आवास-स्थान होने से वह द्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है, अथवा यह उसका शाश्वत नाम है-सदा से चला आता है. उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से गंगा महानदी आगे निकलती है। वह उत्तरार्ध भरतक्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब सात हजार नदियाँ उसमें आ मिलती हैं। वह उनसे आपूर्ण होकर खण्डप्रपात गुफा होती हुई, वैताढ्य पर्वत को चीरती हुई-पार करती हुई दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र की ओर जाती है। वह दक्षिणार्ध भरत के ठीक बीच से बहती हुई पूर्व की ओर मुड़ती है। फिर चौदह हजार नदियाँ के परिवार से युक्त होकर वह (गंगा महानदी) जम्बूद्वीप की जगती को विदीर्ण कर-चीर कर पूर्वी-पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। गंगा महानदी का प्रवह-उद्गमस्त्रोत-जिस स्थान से वह निर्गत होती है, वहाँ उसका प्रवाह एक
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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