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________________ तृतीय वक्षस्कार ] हजार पुरवरों— महानगरों, बत्तीस हजार जनपदों, छियानवै करोड़ गाँवों, निन्यानवै हजार द्रोणमुखों, अड़तालीस हजार पत्तनों, चौबीस हजार कर्वटों, चौबीस हजार मडम्बों, बीस हजार आकरों, सोलह हजार खेटों, चौदह हजार संवाधों, छप्पन अन्तरोदकों - जलके अन्तवर्ती सन्निवेश - विशेषों तथा उनचास कुराज्यों - भील आदि जंगली जातियों के राज्यों का, विनीता राजधानी का, एक ओर लघु हिमवान् पर्वत से तथा तीन ओर समुद्रों से मर्यादित समस्त भरतक्षेत्र का, अन्य अनेक माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, तलवर, सार्थवाह, आदि का आधिपत्य, पौरौवृत्य - अग्रेसरत्व, भर्तृत्व - प्रभुत्व, स्वामित्व, महत्तरत्व - अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व सैनापत्य — जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार होता है, वैसा सैनापत्य — सेनापतित्व - इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करता हुआ, सम्यक् निर्वाह करता हुआ राज्य करता था । [१८३ राजा भरत ने अपने कण्टकों - गोत्रज शत्रुओं की समग्र सम्पत्ति का हरण कर लिया, उन्हें विनष्ट कर दिया तथा अपने अगोत्रज समस्त शत्रुओं को मसल डाला, कुचल डाला। उन्हें देश से निर्वासित कर दिया। यों उसने अपने समग्र शत्रुओं को जीत लिया । राजा भरत को सर्वविध औषधियां, सर्वविध रत्न तथा सर्वविध समितियाँ - आभ्यन्तर एवं बाह्य परिषदें संप्राप्त थीं। अमित्रों - शत्रुओं का उसने मान-भंग कर दिया । उसके समस्त मनोरथ सम्यक् सम्पूर्ण थे - सम्पन्न थे । जिसके अंग श्रेष्ठ चन्दन से चर्चित थे, जिसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित था, प्रीतिकर था, जो श्रेष्ठ मुकुट से विभूषित था, जो उत्तम, बहूमूल्य आभूषण धारण किये था, सब ऋतुओं में खिलने वाले फूलों की सुहावनी माला से जिसका मस्तक शोभित था, उत्कृष्ट नाटक प्रतिबद्ध पात्रों - नाटक मण्डलियों तथा सुन्दर स्त्रियों के समूह से संपरिवृत वह राजा भरत अपने पूर्व जन्म में आचीर्ण तप के, संचित निकाचितनिश्चित रूप में फलप्रद पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन के सुखों का परिभोग करने लगा । कैवल्योद्भव ८७. तए णं से भरहे राया अण्णया कयावि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव ' ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खवइ २त्ता जेणेव आदंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ २त्ता आदंसघरंसि अत्ताणं देहमाणे २ चिट्ठा । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं २ ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरणं पविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे । तए णं से भरहे केवली सयमेवाभरणालंकारं ओमुअइ २त्ता सयमेव पंचमुट्ठिअं लोअं करेइ २त्ता आयंसघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता अंतेउरमज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ २त्ता दसहिं रायवरसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे विणीअं रायहाणिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ २ त्ता मज्झदेसे सुहंसुहेणं १. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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