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________________ १८४] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विहरइ रत्ता जेणेव अट्ठावए पव्वए तेणेव उवागच्छइ २त्ता अट्ठावयं पव्वयं सणि २ दुरूहइ २त्ता मेघघणसण्णिकासं देवसण्णिवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ २त्ता संलेहणा-झूसणाझूसिए भत्त-पाण-पडिआइक्खए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे २ विहरइ। तएणं से भरहे केवली सत्तत्तरि पुव्वसयसहस्साइंकुमारवासमझे वसित्ता, एगंवाससहस्सं मंडलिय-राय-मज्झे वसित्ता, छ पुव्वसयसहस्साइं वाससहस्सूणगाइं महारायमझे वसित्ता, तेसीइ पुव्वसयसहस्साइं अगारवासमझे वसित्ता, एगं पुव्वसयसहस्संदेसूणगंकेवलि-परियायं पाउणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामन्न-परियायं पाउणित्ता चउरासीइ पुव्वसयसहस्साइंसव्वाउअंपाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं सवणेणंणक्खत्तेणंजोगमुवागएणं खीणे वेअणिज्जे आउए णामे गोए कालगए वीइक्कंते समुज्जाए छिण्णजाइ-जरा-मरण-बन्धणे सिद्धे बद्धे मुत्ते परिणिव्वुडे अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे। __ [८७] किसी दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ, स्नान किया। मेघसमूह को चीर कर बाहर निकलते चन्द्रमा के सदृश प्रियदर्शन-देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगनेवाला राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकल कर जहाँ आदर्शगृह-कांच से निर्मित भवन-शीशमहल था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया। आकर पूर्व की ओर मुँह किये सिंहासन पर बैठा। वह शीशमहल में शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार-बार देखता रहा। शुभ परिणाम-अन्तःपरिणति, प्रशस्त-उत्तम अध्यवसाय-मन:संकल्प, विशुद्ध होती हुई लेश्याओंपुद्गल द्रव्यों के संसर्ग से जनित आत्मपरिणामों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए विशुद्धिक्रम से ईहा-सामान्य ज्ञान के अनन्तर विशेष निश्चयार्थ विचारणा, अपोह-विशेष निश्चयार्थ प्रवृत्त विचारणा द्वारा तदनुगुण दोषचिन्तन प्रसूत निश्चय, मार्गण तथा गवेषण-निरावरण परमात्मस्वरूप के चिन्तन, अनुचिन्तन, अन्वेषण करते हुए राजा भरत को कर्मक्षय से-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय-इन चार घाति कर्मों के-आत्मा के मूल गुणों-केवलज्ञान तथा केवलदर्शन आदि का घात या अवरोध करनेवाले कर्मों के क्षय के परिणामस्वरूप, कर्म-रज के निवारक अपूर्वकरण में-शुक्लध्यान में अवस्थिति द्वारा अनन्त-अन्तरहित, कभी नहीं मिटने वाला, अनुत्तर-सर्वोत्तम, निर्व्याघात-बाधा-रहित, निरावरण-आवरण-रहित, कृत्स्नसम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। तब केवली सर्वज्ञ भरत ने स्वयं ही अपने आभूषण, अलंकार उतार दिये। स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। वे शीशमहल से प्रतिनिष्क्रान्त हुए। प्रतिनिष्क्रान्त होकर अन्तःपुर के बीच से होते हुए राजभवन से बाहर निकले। अपने द्वारा प्रतिबोधित दश हजार राजाओं से संपरिवृत केवली भरत विनीता राजधानी के बीच से होते हुए बाहर चले गये। मध्यदेश में-कोशलदेश में सुखपूर्वक विहार करते हुए वे जहाँ अष्टापद पर्वत था, वहाँ आये। वहाँ आकर धीरे-धीरे अष्टापद पर्वत पर चढ़े। पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ के समान श्याम तथा देव-सन्निपात-रम्यता के कारण जहाँ देवों का आवागमन रहता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर उन्होंने वहाँ संलेखना-शरीर-कषाय-क्षयकारी तपोविशेष स्वीकार किया, खान
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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