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________________ १७० ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पुरुष, लंख-बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले-नट, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, उदार-उत्तम, इष्ट-वाञ्छित, कान्त-कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ-मनोनुकूल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, शिव-कल्याणमयी, धन्य-प्रशंसायुक्त, मंगल-मंगलयुक्त, सश्रीक-शोभायुक्त-लालित्ययुक्त, हृदयगमनीय-हृदयंगम होने वाली-हृदय में स्थान प्राप्त करने वाली, हृदय-प्रह्लादनीय-हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी से एवं मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरत-लगातार-अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए प्रशस्ति करते हुए इस प्रकार बोले.-जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, आपकी विजय हो। जन-जन के लिए कल्याणस्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो। जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें। देवों में इन्द्र की तरह, तारों में चन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह तथा नागों में धरणेन्द्र की तरह लाखों पूर्व, करोड़ों पूर्व, कोडाकोडी पूर्व पर्यन्त उत्तर दिशा में लघु हिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्रों द्वारा मर्यादित सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के ग्राम, आकर-नमक आदि के उत्पत्ति-स्थान. नगरजिनमें कर नहीं लगता हो, ऐसे शहर, खेट-धूल के परकोटों से युक्त गाँव, कर्वट अति साधारण कस्बे, मडम्ब-आसपास गाँव रहित बस्ती, द्रोणमुख-जल मार्ग तथा स्थल-मार्ग से युक्त स्थान, पत्तन-बन्दरगाह अथवा बड़े नगर, आश्रम-तापसों के आवास, सन्निवेश-झोपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान-इन सबका-इन सब में बसने वाले प्रजाजनों का सम्यक्-भली-भाँति पालन कर यश अर्जित करते हुए, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्य-अग्रेसरता या आगेवानी स्वामित्व, भर्तृत्व, प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व-सैनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार होता है, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में सर्वथा निर्वाह करते हुए निर्बाध, निरन्तर अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, करताल, तूर्य-तुरही एवं घनमृदंग-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंग आदि के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्दित होते हुए, विपुल-प्रचुरअत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जयघोष किया। राजा भरत का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी अपने वचनों द्वारा बार-बार उसका अभिस्तवन-गुणसंकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी हृदय से उसका बारबार अभिनन्दन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ-हम इनकी सन्निधि में रह पाएं, इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मन:कामनाएँ लिये हुए थे। सहस्रों नर-नारी उसकी कान्ति-देहदीप्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण-ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे। नर नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला-प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊँचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ, वीणा, ढोल, तुरही आदि वाद्यों की मधुर, मनोहर, सुन्दर ध्वनि में तन्मय होता हुआ, उसका आनन्द लेता हुआ, जहाँ अपना घर था, अपने सर्वोत्तम प्रासाद का द्वार था, वहाँ आया। वहाँ आकर अभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया, उससे नीचे उतरा, नीचे उतरकर सोलह हजार देवों का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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