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________________ तृतीय वक्षस्कार] [१६९ शरीर से उतार दिये। माला, वर्णक-चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों के देहगत विलेपन दूर किये। शस्त्रकटार आदि, मूसल-दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे।) डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत तेले की तपस्या में प्रतिजागरित-सावधानतापूर्वक संलग्न रहा। तेले की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करने, स्नानघर में प्रविष्ट होने, स्नान करने आदि का वर्णन पूर्ववत् संग्राह्य है। सभी नित्य नैमित्तिक आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर राजा भरत अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजपति पर आरुढ हुआ। यहाँ से आगे का वर्णन विनीता राजधानी से विजय हेतु अभियान करने के वर्णन जैसा है। केवल इतना अन्तर है कि विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर नौ महानिधियों ने तथा चार सेनाओं ने राजधानी में प्रवेश नहीं किया। उनके अतिरिक्त सबने उसी प्रकार विनीता में प्रवेश किया, जिस प्रकार विजयाभिमान के अवसर पर विनीता से निकले थे। राजा भरत ने तुमुल वाद्य-ध्वनि के साथ विनीता राजधानी के बीचों-बीच चलते हुए जहाँ अपना पैतृक घर था, जगद्वर्ति निवास-गृहों में सर्वोत्कृष्ट प्रासाद का बाहरी द्वार था, उधर चलने का विचार किया, चला। जब राजा भरत इस प्रकार विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था, उस समय कतिपय जन विनीता राजधानी के बाहर-भीतर पानी का छिड़काव कर रहे थे, गोबर आदि का लेप कर रहे थे, मंचातिमंचसीढ़ियों से समायुक्त प्रेक्षागृहों की रचना कर रहे थे, तरह-तरह के रंगों के वस्त्रों से बनी, ऊँची, सिंह, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजाओं एवं पताकाओं से नगरी के स्थानों को सजा रहे थे। अनेक व्यक्ति नगरी की दीवारों को लीप रहे थे, पोत रहे थे। अनेक व्यक्ति काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबन आदि तथा धूप की गमगमाती महक से नगरी के वातावरण को उत्कृष्ट सुरभिमय बना रहे थे, जिससे सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता के कारण गोल-गोल धूममय छल्ले बनते दिखाई दे रहे थे। कतिपय देवता उस समय चाँदी की वर्षा कर रहे थे। कई देवता स्वर्ण, रत्न, हीरों एवं आभूषणों की वर्षा कर रहे थे। जब राजा भरत विनीता राजधानी के बीचे से निकल रहा था तो नगरी के सिंघाटक-तिकोने स्थानों, (तिराहों, चौराहों, चत्वरों-जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बाजारों) महापथों-बड़ीबड़ी सड़कों पर बहुत से अभ्यर्थी-धन के अभिलाषी, कामार्थी-सुख या मनोज्ञ शब्द, सुन्दर रूप के अभिलाषी, भोगार्थी-सुखप्रद गन्ध, रस एवं स्पर्श के अभिलाषी, लाभार्थी-मात्र भोजन के अभिलाषी, ऋद्ध्येषिक-गोधन आदि ऋद्धि के अभिलाषी, किल्विषिक-भांड आदि, कापालिक-खप्पर धारण करने वाले भिक्षु करबाधित-करपीडित-राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक, लांगलिक-हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुँह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले या खुशामदी, पुष्यमानव-मागध-भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक-औरों के कन्धों पर स्थित
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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