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________________ १६८ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र चमरग्राह- चँवर लिये हुए, पाशग्राह- उद्धत घोड़ों तथा बैलों को नियन्त्रित करने हेतु चाबुक आदि लिये हुए अथवा पासे आदि द्यूत - सामग्री लिए हुए, फलकग्राह - काष्ठपट्ट लिए हुए, परशुग्राह- कुल्हाड़े लिये हुए, पुस्तकग्राह–पुस्तकधारी - ग्रन्थ लिये हुए अथवा हिसाब-किताब रखने के बही-खाते आदि लिये हुए, वीणाग्रह - वीणा लिये हुए, कुप्यग्राह - पक्व तैलपात्र लिये हुए, हड़प्फग्राह- द्रम्म आदि सिक्कों के पात्र अथवा ताम्बूल हेतु पान के मसाले, सुपारी आदि के पात्र लिये हुए पुरुष तथा दीपिकाग्राह-मशालची अपनेअपने कार्यों के अनुसार रुप, वेश, चिह्न तथा वस्त्र आदि धारण किये हुए यथाक्रम चले। उसके बाद बहुत से दण्डी - दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी - सिरमुँडे, शिखण्डी - शिखाधारी, जटी - जटाधारी, पिच्छी - मयूरपिच्छ - मोरपंख आदि धारण किये हुए, हासकारक - हास-परिहास करने वाले - विदूषक - मसखरे, खेड्डुकारक - द्यूतविशेष में निपुण, द्रवकारक - क्रीड़ा करने वाले – खेल-तमाशे करने वाले, चाटुकारक- खुशामदी- खुशामदयुक्त, प्रिय वचन बोलने वाले, कान्दर्पिक - कामुक या शृंगारिक चेष्टाएँ करने वाले, कौत्कुचिक - भांड आदि तथा मौखरिक - मुखर, वाचाल मनुष्य गाते हुए, खेल करते हुए, (तालियाँ बजाते हुए) नाचते हुए, हँसते हुए, पासे आदि द्वारा द्यूत आदि खेलने का उपक्रम करते हुए, क्रीड़ा करते हुए, तरह-तरह की आवाजें करते हुए, अपने मनोज्ञ वेष आदि द्वारा शोभित होते हुए, दूसरों को शोभित करते हुए - प्रसन्न करते हुए, राजा भरत को देखते हुए, उनका जयनाद करते हुए यथाक्रम चलते गये । यह प्रसंग विस्तार से औपपातिकसूत्र के अनुसार संग्राह्य है । राजा भरत के आगे-आगे बड़े-बड़े कद्दावर घोड़े, घुड़सवार ( गजारूढ़ राजा के) दोनों ओर हाथी, हाथियों पर सवार पुरुष चलते थे । उसके पीछे रथ - समुदाय यथावत् रूप से चलता था। तब नरेन्द्र भरत क्षेत्र का अधिपति राजा भरत, जिसका वक्षःस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था, अमरपति - देवराज इन्द्र के तुल्य जिसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसकी कीर्ति विश्रुत थी, समुद्र के गर्जन की ज्यों अत्यधिक उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुआ, सब प्रकार की ऋद्धि तथा द्युति से समन्वित, भेरी-नगाड़े, झालर, मृदंग आदि अन्य वाद्यों की ध्वनि के साथ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब (द्रोणमुख, आश्रम, संवाध) से युक्त मेदिनी को जीतता हुआ उत्तम, श्रेष्ठ रत्न भेंट के रूप में प्राप्त करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुसरण करता हुआ, एक-एक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालता हुआ, रुकता हुआ, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ आया । राजधानी से न अधिक दूर न अधिक समीप - थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा (उत्तम नगर के सदृश ) सैन्य शिविर स्थापित किया। अपने उत्तम शिल्पकार को बुलाया। यहाँ की वक्तव्यता पूर्वानुसार संग्राह्य है । विनीता राजधानी को उद्दिष्ट कर - तदधिष्ठायक देव को साधने हेतु राजा ने तेले की तपस्या स्वीकार की। (तपस्या स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया, मणि-स्वर्णमय आभूषण
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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