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तृतीय वक्षस्कार]
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ओसप्पिणीइमीसे, तइआए समाए पच्छिमे भाए। अहमंसि चक्कवट्टी, भरहो इअ नामधिज्जेणं ॥१॥ अहमंसि पढमराया, अहयं भरहाहिवो णरवरिंदो।
णत्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं ॥२॥ इति कट्ट णामगंआउडेइ, णामगं आउडित्ता रहं परावत्तेइ २त्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे, जेणेवबाहिरिआउवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता(तुरए णिगिण्हइ २ त्ता रहं ठवेइ २त्ता रहाओ पच्चोरुहति २त्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छति २त्ता मजणघरं अणुपविसइ २त्ता जाव ससिव्व पिअदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ २ त्ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ २ ताअट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ रत्ता एवंवयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! उस्सुक्कं उक्करं जावचुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिअं महामहिमं करेह रत्ता मम एअमाणत्तिअंपच्चप्पिण्णह, तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ताओ समाणीओ हट्ट जाव करेंति २त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति) चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जाव ' दाहिणिं दिसिं वेअड्डपव्वयाभिमुहे पयाते आवि होत्था।
[७९] क्षुद्र हिमवान् पर्वत पर विजय प्राप्त कर लेने के पश्चात् राजा भरत ने अपने रथ के घोड़ों को नियन्त्रित किया-दाईं ओर के घोड़ों को लगाम द्वारा अपनी ओर खींचा तथा बाई ओर के दो घोड़ों को आगे किया ढीला छोड़ा। यों उन्हें रोका। रथ को वापस मोड़ा। वापस मोड़कर जहाँ ऋषभकूट पर्वत था, वहाँ आया। वहाँ आकर रथ के अग्र भाग से तीन बार ऋषभकूट पर्वत का स्पर्श किया। तीन बार स्पर्श कर फिर उसने घोड़ों को खड़ा किया, रथ को ठहराया। रथ को ठहराकर काकणी रत्न का स्पर्श किया। वह (काकणी) रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर, नीचे छह तलयुक्त था। ऊपर, नीचे एवं तिरछे-प्रत्येक ओर वह चार-चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटि युक्त था। उसकी आठ कर्णिकाएं थीं। अधिकरणीस्वर्णकार लोह-निर्मित जिस पिण्डी पर सोने, चाँदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान आकारयुक्त था, सौवर्णिक था-अष्टस्वर्णमान परिमाण था।
राजा नें काकणी रत्न का स्पर्श कर ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय कटक में-मध्य भाग में इस प्रकार नामांकन किया
इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक के पश्चिम भाग में तीसरे भाग में मैं भरत नामक चक्रवर्ती हुआ हूँ॥१॥
१. देखें सूत्र ५०