SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जैसे वह कमर बांधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बांधे था। उसका कौशेय-पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था।) राजा भरत द्वारा ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव की मर्यादा में-सीमा में तत्सम्बद्ध समुचित स्थान में गिरा। क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव ने बाण को अपने यहाँ गिरा हुआ देखा तो तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, (रोषयुक्त हो गया, कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड-विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया। कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएं उभर आईं। उसकी भृकुटि तन गई वह बोला-'अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन-असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा तथा श्री-शोभा से परिवर्जित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट देवानुभाव-दैविक प्रभाव से लब्ध, प्राप्त, स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवधुति पर प्रहार करते हुए मौत से न डरते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है ! यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह नामांकित बाण पड़ा था, वहाँ आया। आकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा। देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ-'जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। अतः अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देवों के लिए यह उचित है-परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे (चक्रवर्ती) राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए मैं भी जाउँ, राजा को उपहार भेंट करूं। यों विचार कर) उसने प्रीतिदान-भेंट के रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन-हिमवान कुंज में उत्पन्न होने वाला चन्दन-विशेष, कटक (त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण), पद्मद्रह-पद्म नामक (हृद) का जल लिया। यह सब लेकर उत्कृष्ट तीव्र गति द्वारा वह राजा भरत के पास आया। आकर बोलामैं क्षुद्र हिमवान् पर्वत की सीमा में देवानुप्रिय के -आपके देश का वासी हूँ। मैं आपका आज्ञानुवर्ती सेवक हूँ। आपका उत्तर दिशा का अन्तपाल हूँ-उपद्रव-निवारक हूँ। अतः देवानुप्रिय ! आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें। यों कहकर उसने सर्वोषधि, माला, गोशीर्ष चन्दन, कटक, त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण तथा पद्महद का जल भेंट किया। राजा भरत ने क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गये उपहार स्वीकार किये। स्वीकार करके क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विदा किया। ऋषभकूट पर नामांकन ७९. तए णं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ रत्ता रहं परावत्तेइ रत्ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ २त्ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ रत्ता तुरए णिगिण्हइ २त्ता रहं ठवेइ २त्ता छत्तलं दुवालसंसिअं अट्ठकण्णिअं अहिगरणिसंठिअंसोवण्णिअंकागणिरयणं परामुसइ २त्ता उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लंसि कडगंसि णामग आउडेइ
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy