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________________ तृतीय वक्षस्कार] [१५१ [७८] आपात किरातों को विजित कर लेने के पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला, आकाश में अधर अवस्थित हुआ फिर वह उत्तर-पूर्व दिशा में ईशान-कोण में क्षुद्र-लघु हिमवान् पर्वत की ओर चला। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को उत्तर-पूर्व दिशा में क्षुद्र हिमवान् पर्वत की ओर जाते देखा। उसने क्षुद्र हिमवान वर्षधर पर्वत से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा (नौ योजन चौड़ा, उत्तम नगर जैसा) सैन्य-शिविर स्थापित किया। उसने क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या स्वीकार की। आगे का वर्णन मागध तीर्थ के प्रसंग जैसा है। (......राजा भरत घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था। बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह उसके साथ चल रहा था। चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा था। हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो।) राजा भरत उत्तर दिशा की ओर अग्रसर हुआ। जहाँ क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत था, वहाँ आया। उसके रथ का अग्रभाग क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से तीन बार स्पष्ट हुआ। उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित किया। (घोड़ों को नियन्त्रित कर रथ को रोका। धनुष का स्पर्श किया। वह धनुष अचिरोद्गत बालचन्द्र-शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था। उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैंसे के सदृढ, सघन सींगों की ज्यों निविडं-निश्छिद्र-पुद्गलनिष्पन्न था। उस धनुष का पृष्ठ भाग उत्तम नाग, महिषश्रृंग, श्रेष्ठ कोकिल, भ्रमरसमुदाय तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कांति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था। निपुण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समूह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहने वाले सिंह के अयाल तथा चँवरी गाय की पूंछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्ध चन्द्राकार बन्द लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले, तथा सफेद स्नायुओं-नाड़ी-तन्तुओं से उसकी प्रत्यञ्चा बंधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यञ्चा चंचल थी। राजा ने वह धनुष उठाया उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियां उत्तम वज्र-श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वज्र की भांति अभेद्य था। उसका पूंछ-पीछे का भाग-स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकांत आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। भरत ने वैशाख-धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले विशेष पादन्यास में स्थित होकर) उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा (और वह यों बोला-मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्ण कुमार आदि देवो ! मैं आपको प्रणाण करता हूँ। आप सुनेंस्वीकार करें।) ऐसा कर राजा भरत ने वह बाण ऊपर आकाश में छोड़ा। मल्ल जब अखाड़े में उतरता है, तब
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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