________________
तृतीय वक्षस्कार ]
समग्र भरत क्षेत्र को जीत लिया है ( जीत रहे हैं)। हम देवानुप्रिय के देश में प्रजा के रूप में निवास कर रहे हैं - हम आपके प्रजाजन हैं ॥ ३-४ ॥
[ १४९
देवानुप्रिय को - आपकी ऋद्धि - सम्पत्ति, द्युति - कान्ति, यश-कीर्ति, बल - दैहिक शक्ति, वीर्यआन्तरिक शक्ति, पुरुषकार - पौरुष तथा पराक्रम- ये सब आश्चर्यकारक हैं । आपको दिव्य देव-द्युतिदेवताओं के सदृश परमोत्कृष्ट कान्ति, परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त है। हमने आपकी ऋद्धि (द्युति, यश, बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देव-प्रभाव, जो आपको लब्ध है, प्राप्त है) का साक्षात् अनुभव किया है । देवानुप्रिय हम आपसे क्षमा याचना करते हैं । देवानुप्रिय आप हमें क्षमा करें। आप क्षमा करने योग्य हैं - क्षमाशील हैं । देवानुप्रिय हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। यों कहकर वे हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में गिर पड़े, शरणागत हो गये ।
फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वारा भेंट के रूप में उपस्थापित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये । स्वीकार कर उनसे कहा- तुम अब अपने स्थान पर जाओ। मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है - मेरा हाथ तुम्हारे मस्तक पर है। तुम निर्भय - भयरहित, उद्वेग रहित - व्यथा रहित होकर सुखपूर्वक रहो। अब तुम्हें किसी से भी भय, नहीं है। यों कहकर राजा भरत नें उनका सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया।
तब राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा- देवानुप्रिय ! जाओ, पूर्वसाधित निष्कुट - कोणवर्ती प्रदेश की अपेक्षा दूसरे, सिन्धु महानदी के पश्चिम भागवर्ती कोण में विद्यमान, पश्चिम में सिन्धु महानदी तथा पश्चिमी समुद्र, उत्तर में क्षुल्ल हिमवान् पर्वत तथा दक्षिण में वैताढ्य पर्वत द्वारा मर्यादित - विभक्त प्रदेश को, उसके सम-विषम कोणस्थ स्थानों को साधित करो - विजित करो । वहाँ से उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में प्राप्त करो। यह सब कर मुझे शीघ्र ही अवगत कराओ ।
इससे आगे का भाग दक्षिण सिन्धु निष्कुट के विजय के वर्णन के सदृश है । वैसा ही यहाँ समझ लेना चाहिए ।
चुल्लहिमवंतविजय
७८. तए णं दिव्वे चक्करयणे अण्णया कयाइ आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव' उत्तरपुरच्छिमं दिसिं चुल्लहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयाते यावि होत्था । तणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं (उत्तरपुरच्छ्रिमं दिसिं चुल्लहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयातं पासइ) चुल्लहिमवंतवासहरपव्वस्स अदूरसामंते दुवालसयोजनायामं (णवजोअणवित्थिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ ) चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिues, तहेव जहा मागहतित्थस्स ( हयगयरहपवरजोहकलिआए सद्धिं संपरिवुडे महयाभडचडगर-पहगरवंद-परिक्खित्ते चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभियमहा-) समुद्दरवभूअंपिव करेमाणे २ उत्तरदिसा
१. देखें सूत्र संख्या ६२