________________
[ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
रहे हो। तुम्हारा यह कार्य अनुचित है— तुमने यह बिना सोचे समझे किया है, किन्तु बीती बात पर अब क्या अधिक्षेप करें - उपालंभ दें। तुम अब शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ, अन्यथा इस जीवन से अग्रिम जीवन देखने को तैयार हो जाओ - मृत्यु की तैयारी करो ।
१४८ ]
जब उन देवताओं ने मेघमुख नागकुमार देवों को इस प्रकार कहा तो वे भीत, त्रस्त, व्यथित एवं उग्र हो गये, बहुत डर गये। उन्होंने बादलों की घटाएँ समेट लीं। समेट कर, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आए और बोले- देवानुप्रियो ! राजा भरत महा ऋद्धिशाली (परम द्युतिमान् तथा परम सौभाग्यशाली है । उसे न कोई देव, न कोई दानव, न कोई किन्नर, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है। न उसे शस्त्र प्रयोग द्वारा, न अग्नि- प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्रप्रयोग द्वारा ही उपद्रुत किया जा सकता है, रोका जा सकता है।) देवानुप्रियो ! फिर भी हमने तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग - विघ्न किया। अब तुम जाओ, स्नान करो, नित्य नैमित्तिक कृत्य करो, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजो, ललाट पर तिलक लगाओ, दुःस्वप्न आदि दोष निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान करो। यह सब कर तुम गीली, धोती, गीला दुपट्टा धारण किए हुये, वस्त्रों के नीचे लटकते किनारों को सम्हाले हुए - पहने हुए वस्त्रों को भली भाँति बाँध में - जचाने में समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्नों को लेकर हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में पड़ो, उसकी शरण लो ! उत्तम पुरुष विनम्र जनों के प्रति वात्सल्य भाव रखते हैं, उनका हित करते हैं । तुम्हें राजा भरत से कोई भय नहीं होगा । यों कहकर वे देव जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले गये ।
मेघमुख नागकुमार देवों द्वारा यों कहे जाने पर वे आपात किरात उठे । उठकर स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किए, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया । यह सब कर गीली, धोती, गीला दुपट्टा धारण किए हुये, वस्त्रों के नीचे लटकते किनारों को सम्हाले हुए - पहने हुए वस्त्रों को भली भाँति बाँधने में—जचाने में समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्न लेकर जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। आकर हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया । राजा भरत को 'जय विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया, श्रेष्ठ उत्तम रत्न भेंट किये तथा इस प्रकार बोले- षट्खण्डवर्ती वैभव के - सम्पत्ति के स्वामिन् ! गुणभूषित ! जयशील ! लज्जा, लक्ष्मी, धृति - सन्तोष, कीर्ति के धारक ! राजोचित सहस्रों लक्षणों से सम्पन्न ! नरेन्द्र हमारे इस राज्य का चिरकाल पर्यन्त आप पालन करें ॥ १ ॥
अश्वपते ! गजपते ! नरपते ! नवनिधिपते ! भरत क्षेत्र के प्रथमाधिपते ! बत्तीस हजार देशों के राजाओं के अधिनायक ! आप चिरकाल तक जीवित रहें - दीर्घायु हों ॥ २ ॥
प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालिन् ! चौसठ हजार नारियों के हृदयेश्वर - प्राणवल्लभ ! रत्नाधिष्ठातृमागध तीर्थाधिपति आदि लाखों देव के स्वामिन् ! चतुर्दश रत्नों के धारक ! यशस्विन् ! आपने दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम दिशा में समुद्रपर्यन्त और उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान् गिरि पर्यन्त उत्तरार्ध, दक्षिणार्ध