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________________ तृतीय वक्षस्कार] [१४७ सागरगिरिमेरागं, उत्तरवाईणमभिजिअं तुमए। ता अम्हे देवाणुप्पिअस्स विसए परिवसामो॥४॥ अहो णं देवाणुप्पिआणं इड्डी जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए।तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिआणं इड्डी एवं चेव।(जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावेलद्धे पत्ते) अभिसमण्णागए। तं खामेसु णं देवाणुप्पिआ ! खमंतु णं देवाणुप्पिआ! खंतुमरहतु णं देवाणुप्पिआ ! णाइ भुजो भुज्जो एवंकरणाएत्ति कटु पंजलिउडा पायवडिआ भरहं रायं सरणं उविंति। तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाइं वराइं रयणाई पडिच्छति २त्ता ते आवाडचिलाए एवंवयासी-गच्छहणंभो ! तुब्भे ममंबाहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसह, णत्थि भे कत्तो वि भयमस्थित्ति कट्ट सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। तएणं से भरहे राया सुसेण सेणावई सद्दावेइ रत्ता एवं वयांसी-गच्छाहिणंभो देवाणुप्पिआ ! दोच्चं पिसिंधूए महाणईए पच्चत्थिमंणिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अओअवेहि रत्ता अग्गाईवराई रयणाइंपडिच्छाहि रत्ता मम एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणाहि जहा दाहिणिल्लस्स ओयवणं तहा सव्वं भाणिअव्वं जाव पच्चणुभवमाणा विहरंति। [७७] जब राजा भरत को इस रूप में रहते हुए सात दिन रात व्यतीत हो गये तो उसके मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ वह सोचने लगा-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु का प्रार्थी-चाहने वाला, दु:खद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला (पुण्य चतुर्दशीहीन-असंपूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई, उन अशुभ दिन में जन्मा हुआ अभागा, लज्जा, शोभा से परिवर्जित) कौन ऐसा है, जो मेरी दिव्य ऋद्धि तथा दिव्य द्युति की विद्यमानता में भी मेरी सेना पर युग, मूसल एवं मुष्टिका प्रमाण जलधारा द्वारा सात दिन-रात हुए, भारी वर्षा करता जा रहा है। राजा भरत के मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ जानकर सोलह हजार देव-युद्ध हेतु सन्नद्ध हो गये। उन्होंने लोहे के कवच अपने शरीर पर कस लिये, शस्त्रास्त्र धारण किये, जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये। आकर उनसे बोले-मृत्यु को चाहने वाले, (दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला पुण्य चतुर्दशीहीन-असंपूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई, उन अशुभ दिन में जन्मा हुआ अभागा, लज्जा, शोभा से परिवर्जित) मेघमुख नागकुमार देवो ! क्या तुम चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत को नहीं जानते ? वह महा ऋद्धिशाली है। (परम द्युतिमान् तथा परम सौख्यशाली-भाग्यशाली है। उसे न कोई देव-वैमनिक देवता न कोई दानव-भवनवासी देवता, न कोई किन्नर, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है। न उसे शस्त्र-प्रयोग द्वारा, न अग्निप्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्रुत किया जा सकता है, रोका जा सकता है। फिर भी तुम राजा भरत की सेना पर युग, मूसल तथा मुष्टिका प्रमाण जल-धाराओं द्वारा सात दिन-रात हुए भीषण वर्षा
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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