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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
इस प्रकार परस्पर विचार कर उन्होंने वैसा करने का निश्चय किया। वे उत्कृष्ट, तीव्र गति से चलते हुए, जहाँ जम्बूद्वीप था, उत्तरार्ध भरतक्षेत्र था एवं सिन्धु महानदी थी, आपात किरात थे, वहाँ आये । उन्होंने छोटी-छोटी घण्टियों सहित पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहन रखे थे । आकाश में अधर अवस्थित होते हुए वे आप किरातों से बोले - आपात किरातो ! देवानुप्रियो ! तुम बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो, निर्वस्त्र हो आतापना सहते हुए, तेले की तपस्या में अभिरत होते हुए हमारा - मेघमुख नागकुमार देवों का, जो तुम्हारे कुल देवता हैं, ध्यान कर रहे हो। यह देखकर हम तुम्हारे कुलदेव मेघमुख नागकुमार तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए हैं। देवानुप्रियो ! तुम क्या चाहते हो ? हम तुम्हारे लिए क्या करें ?
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मेघमुख नागकुमार देवों का यह कथन सुनकर आपात किरात अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुए, उठे । उठकर जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये । वहाँ आकर हाथ जोड़े, अंजलि - बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। ऐसा कर मेघमुख नागकुमार देवों को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया—उनका जयनाद, विजयनाद किया और बोले- देवानुप्रियो ! अप्रार्थित - जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु का प्रार्थी - चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला (पुण्य चतुर्दशीहीन - असंपूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ) अभागा, लज्जा, शोभा से परिवर्जित कोई एक पुरुष है, जो बलपूर्वक जल्दी-जल्दी हमारे देश पर चढ़ा आ रहा है । देवानुप्रियो ! आप उसे वहाँ से इस प्रकार फेंक दीजिए - हटा दीजिए, जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक आक्रमण नहीं कर सके, आगे नहीं बढ़ सके ।
तब मेघमुख नागकुमार देवों ने आपात किरातों से कहा- देवानुप्रियो ! तुम्हारे देश पर आक्रमण करने वाला महाऋद्धिशाली, परम द्युतिमान, परम सौख्ययुक्त, चातुरन्त चक्रवर्ती भरत नामक राजा है । उसे न कोई देव - वैमानिक देवता न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है। न उसे शस्त्र प्रयोग द्वारा, न अग्नि- प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र प्रयोग द्वारा ही उपद्रुत किया जा सकता है, रोका जा सकता है। फिर भी हम तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग—विघ्न उत्पन्न करेंगे। ऐसा कहकर वे आपात किरातों के पास से चले गये । उन्होंने वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाला । आत्मप्रदेश बाहर निकाल कर उन द्वारा गृहीत पुद्गलों के सहारे बादलों की विकुर्वणा की । वैसा कर जहाँ राजा भरत की छावनी थी - वहाँ आये । बादल शीघ्र ही धीमेधीमे गरजने लगे। बिजलियाँ चमकने लगीं। वे शीघ्र ही पानी बरसाने लगे । सात दिन तक युग, मूसल एवं मुष्टिका के सदृश मोटी धाराओं से पानी बरसता रहा ।
छत्ररत्न का प्रयोग
७५. तणं से भरहे राया उप्पिं विजयक्खंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ २त्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वे भाव (मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाई जत्थ रोहंति एगदिवसेण वाविआई, वासं णाऊण चक्कवट्टिणा परामुट्ठ दिव्वे चम्मरयणे ) दुवालसजोअणाइं तिरिअं पवित्थर, तत्थ