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________________ तृतीय वक्षस्कार ] उवागच्छंति २त्ता करयलपरिग्गहियं जाव ' मत्थए अंजलिं कट्टु मेहमुहे णागकुमारे देवे जएणं विजएणं वद्धावेंति २त्ता एवं वयासी - एस णं देवाणुप्पिए ! केइ अप्पत्थिअपत्थिए दुरंत पंतलक्खणे (हीणपुण्णचाउद्दसे) हिरि - सिरि परिवज्जिए जे णं अम्हं विसयस्स उवरिं विरिएणं हव्वंमागच्छ, तं तहाणं घत्ह देवाणुप्पिआ ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उवरिं विरिएणं णो हव्वमागच्छइ । [१४१ तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं वयासी - एस णं देवाणुप्पिआ ! भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी महिड्डीए महज्जुईए जाव २ महासोक्खे, णो खलु एस सक्को केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पओगेण वा अग्गिपओगेण वा मंतप्पओगेणं वा उद्दवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहावि अ णं तुब्धं पियट्टयाए भरहस्स रण्णो उवसग्गं करेमोत्ति कट्टु तेसिं आवाडचिलायाणं अंतिआओ अवक्कमति २त्ता वेडव्वियसमुग्धाएणं समोहणंति २त्ताँ महाणीअं विउव्वंति २त्ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयक्खंधावारणिवेसे तेणेव उवागच्छंति २त्ता उप्पिं विजयक्खंधावारणिवेसस्स खिप्पामेव पततुतणायंति खिप्पामेव विज्जुयायंति २त्ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिउं पवत्ता यादि होत्था । [७४] सेनापति सुषेण द्वारा मारे जाने पर, मथित किये जाने पर, घायल किये जाने पर मैदान छोड़कर भागे हुए आपात किरात बड़े भीत- भयाकुल, त्रस्त - त्रासयुक्त, व्यथित - व्यथायुक्त - पीड़ायुक्त, उद्विग्नउद्वेगयुक्त होकर घबरा गये । युद्ध में टिक पाने की शक्ति उनमें नहीं रही। वे अपने को निर्बल, निर्वीर्य तथा पौरुष-पराक्रम रहित अनुभव करने लगे। शत्रु सेना का सामना करना शक्य नहीं है, यह सोचकर वे वहाँ से अनेक योजन दूर भाग गये । 1 यों दूर जाकर वे एक स्थान पर आपस में मिले, जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ आये । वहाँ आकर बालू के संस्तारक - बिछौने तैयार किये। बालू के संस्तारकों पर वे स्थित हुए। वैसा कर उन्होंने तेले की तपस्या स्वीकीर की। वे अपने मुख ऊँचे किये, निर्वस्त्र हो घोर आतापना सहते हुए मेघमुख नामक नागकुमारों का, जो उनके कुल देवता थे, मन में ध्यान करते हुए तेले की तपस्या में अभिरत हो गए। जब तेले की तपस्या परिपूर्ण-प्राय थी, तब मेघमुख नागकुमार देवों के आसन चलित हुए। मेघमुख नागकुमार देवों ने अपने आसन चलित देखे तो उन्होंने अपने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उन्होंने आपात किरातों को देखा। उन्हें देखकर वे परस्पर यों कहने लगे - देवानुप्रियो ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में सिन्धु महानदी पर बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो आपात किरात अपने मुख ऊँचे किये हुए तथा निर्वस्त्र हो आतापना सहते हुए तेले की तपस्या में संलग्न हैं। वे हमारा - मेघमुख नागकुमार देवों का, जो उनके कुल देवता हैं, ध्यान करते हुए विद्यमान हैं । देवानुप्रियो ! यह उचित है कि हम उन आपात किरातों के समक्ष प्रकट हों । १. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र संख्या ४१
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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