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________________ तृतीय वक्षस्कार] [१४३ साहिआई, तए णं से भरहे राया सखंधावरबले चम्मरयणं दुरूहइ रत्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ, तए णंणवणउइसहस्सकंचणसलागपरिमंडिअंमहरिहं अउझं णिव्वणसुपसत्थविसिट्ठलट्ठकंचणसुपटुदंडं मिउराययवट्टलटुअरविंदकण्णिअसमाणरूवंवत्थिपएसे अपंजरविराइविविहभत्तिचित्तं मणिमुत्तपवालतत्ततवजिपंचवण्णिअधोअरयणरूवरइयं स्यणमरीईसमोप्पणाकप्पकारमणुरंजिएल्लियं रायलच्छिचिंधं अज्जुणसुवण्णपंडुरपच्चत्थअपट्ठदेसभागं तहेव तवणिजपट्टधम्मंतपरिगयं अहिअसस्सिरीअंसारयरयणिअरविमलपडिपुण्णचंदमंडलसमाणरूवंणरिदवामप्पमाणपगइवित्थडं कुमुदसंडधवलं रण्णो संचारिमं विमाणं सूरातववायबुट्ठिदोसाण यखयकरंतवगुणेहिं लद्धं . अहयं बहुगुणदाणं उऊण विवरीअसुहकयच्छायं। छत्तरयणं पहाणं सुदुल्लहं अप्पपुण्णाणं॥१॥ पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागविमाणवासेविदुल्लहतरंवग्यारिअमल्लदामकलावं सारयधवलब्भरययणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणिअलपुण्णइंदो।तएणं से दिव्वे छत्तरयणे भरहेणं रण्णा परामुढे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाई, पवित्थरइ साहिआई तिरि। ___ [७५] राजा भरत ने अपनी सेना पर युग, मूसल, तथा मुष्टिका के प्रमाण मोटी धाराओं के रूप में सात दिन-रात तक बरसती हुई वर्षा को देखा। देखकर अपने चर्मरत्न का स्पर्श किया। वह चर्म-रत्न श्रीवत्स-स्वस्तिक-विशेष जैसा रूप लिये था। (उस पर मोतियों के, तारों के तथा अर्धचन्द्र के चित्र बने थे। वह अचल एवं अकम्प था। वह अभेद्य कवच जैसा था। नदियों एवं समुद्रों को पार करने का यन्त्रअनन्य साधन था। दैवी विशेषता लिये था। चर्म-निर्मित वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था। उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सकें, वह ऐसी विशेषता लिये था। ऐसी मान्यता है कि गृहपतिरत्न इस चर्म-रत्न पर सूर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उग कर दिन भर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है।) चक्रवर्ती राजा भरत द्वारा उपर्युक्त रूप में होती हुई वर्षा को देखकर छुआ गया दिव्य चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन तिर्यक्-तिरछा विस्तीर्ण हो गया-फैल गया। तत्पश्चात् राजा भरत अपनी सेना सहित उस चर्मरत्न पर आरूढ हो गया। आरूढ होकर उसने छत्ररत्न छुआ, उठाया। वह छत्ररत्न निन्यानवें हजार स्वर्ण-निर्मित शलाकाओं से-ताड़ियों से परिमण्डित था। बहुमूल्य था-चक्रवर्ती के योग्य था। अयोध्य था उसे देख लेने पर प्रतिपक्षी योद्धाओं के शस्त्र उठते तक नहीं ते। वह निव्रण था-छिद्र, ग्रन्थि आदि के दोष से रहित था। सुप्रशस्त, विशिष्ट, मनोहर एवं स्वर्णमय सुदृढ़ दण्ड से युक्त था। उसका आकार मृदु-मुलायम चाँदी से बनी गोल कमलकर्णिका के सदृश था। वह बस्ति प्रदेश में छत्र के मध्य भागवर्ती दण्ड-प्रक्षेपस्थान में जहाँ दण्ड आबिद्ध एवं योजित रहता है, अनेक शलाकाओं से युक्त था। अतएव वह पिंजरे जैसा प्रतीत होता था। उस पर विविध प्रकार की चित्रकारी की हुई थी। उस पर मणि, मोती, मूंगे, तपाये हुए स्वर्ण तथा रत्नों द्वारा पूर्ण कलश आदि मांगलिक-वस्तुओं
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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