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तृतीय वक्षस्कार ]
दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोअणाइं तस्स लेसाउ विवद्धंति तिमिरणिगरपडिसेहिआओ, रत्तिं च सव्वकालं खंधावारे करेइ आलोअं दिवसभूअं जस्स पभावेण चक्कवट्टी, तिमिसगुहं अतीति सेण्णसहिए अभिजेतुं वितिअमद्धभरहं रायवरे कागणिं गहाय तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लपच्चत्थिमिल्लेसुं कडएसु जोअणंतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाई जोअणुज्जोअकराई चक्कणेमीसंठिआई चंदमंडलपडिणिकासाई एगूणपण्णं मंडलाई आलिहमाणे २ अणुप्पविसइ । तए णं सा तिमिसगुहा भरण रण्णा तेहिं जोअणंतरिएहिं (पंचधणुसयविक्खंभेहिं ) जोअणुज्जोअकरेहिं एगूणपण्णाए मंडलेहिं आलिहिज्जमाणएहिं २ खिप्पामेव आलोगभूआ उज्जोअभूआ दिवसभूआ जाया होत्था ।
[७० ] तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरत्न का स्पर्श किया। वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दरतायुक्त था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था - कोई उसका मूल्य आंक नहीं सकता था। वह तिखूंटा था, ऊपर नीचे षट्कोणयुक्त था, अनुपम द्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैडूर्यमणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था - सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था जो सर्व-कष्ट निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था । उसके प्रभाव से तिर्य पशु-पक्षी, देव तथा मनुष्य कृत उपसर्ग - विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करने वाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था । उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल तथा नाखून नहीं बढ़ते थे । उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार
भों से विमुक्त हो जाता था। राजा भरत ने इन अनुपम विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को गृहीत कर गजराज के मस्तक के दाहिने भाग पर निक्षिप्त किया— बांधा ।
भरतक्षेत्र के अधिपति राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था । (उसका मुख कुण्डलों से द्युतिमय था, मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था । वह नरसिंह - मनुष्यों में सिंह सदृश शौर्यशाली, मनुष्यों का स्वामी, मनुष्यों का इन्द्र - परम ऐश्वर्यशाली अधिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार का निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के राजाओं के बीच विद्यमान प्रमुख सौधर्मेन्द्र के सदृश प्रभावशाली, राजोचित तेजोमयी लक्ष्मी से उद्दीप्त, मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत तथा जयनाद से सुशोभित था । वह हाथी पर आरूढ था। कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था । उत्तम, श्वेत चँवर उस पर डुलाये जा रहे थे। वह सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली प्रतीत होता था ।) अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली, यशस्वी लगता था । मणिरत्न से फैलते हुए प्रकाश तथा चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ, अपने पीछे-पीछे चलते हुए हजारों नरेशों से युक्त राजा भरत उच्च स्वर में समुद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हुआ, जहाँ तमिस्रागुफा का दक्षिणी द्वार था, वहाँ आया । चन्द्रमा जिस प्रकार मेघ-जनित विपुल अन्धकार में प्रविष्ट होता है, वैसे ही वह दक्षिणी द्वार से तमिस्रा गुफा में प्रविष्ट हुआ ।
फिर राजा भरत ने काकणी - रत्न लिया । वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर नीचे छ: तलयुक्त था ।