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________________ १३२ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ऊपर, नीचे एवं तिरछे - प्रत्येक ओर वह चार-चार कोटियों से युक्त था, यो बारह कोटि युक्त था । उसकी आठ कर्णिकाएँ थीं। अधिक रणी - स्वर्णकार लोह - निर्मित जिस पिण्डी पर सोने, चांदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान आकारयुक्त था । वह अष्ट सौवर्णिक - अष्ट स्वर्णमान - परिमाण था - तत्कालीन तोल के अनुसार आठ तोले वजन का था । वह चार अंगुल - परिमित था । विषनाशक, अनुपम, चतुरस्रसंस्थान-संस्थित, समतल तथा समुचित मानोन्मानयुक्त था, सर्वजन - प्रज्ञापक - उस समय लोक प्रचलित मानोन्मान व्यवहार का प्रामाणिक रूप से संसूचक था। जिस गुफा के अन्तवर्ती अन्धकार को न चन्द्रमा नष्ट कर पाता था, न सूर्य ही जिसे मिटा सकता था, न अग्नि ही उसे दूर कर सकती थी तथा न अन्य मणियाँ ही जिसे अपगत कर सकती थीं, उस अन्धकार को वह काकणी-रत्न नष्ट करता जाता था । उसकी दिव्य प्रभा बारह योजन तक विस्तृत थी । चक्रवर्ती के सैन्य- सन्निवेश में - छावनी में रात में दिन जैसा प्रकाश करते रहना उस मणि रत्न का विशेष गुण था । उत्तर भरतक्षेत्र को विजय करने हेतु उसी के प्रकाश में राजा भरत ने सैन्यसहित तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया। राजा भरत ने काकणी रत्न हाथ में लिए तमिस्रा गुफा की पूर्वदिशावर्ती तथा पश्चिमदिशावर्ती भित्तियों पर एक एक योजन के अन्तर से पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण, एक योजन क्षेत्र को उद्योतित करने वाले, रथ के चक्के की परिधि की ज्यों गोल, चन्द्र- मण्डल की ज्यों भास्वर - उज्ज्वल, उनचास मण्डल आलिखित किये। वह तमिस्रा गुफा राजा भरत द्वारा यों एक एक योजन दूरी पर लिखित (पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण) एक योजन तक उद्योत करने वाले उनपचास मण्डलों से शीघ्र ही दिन के समान आलोकयुक्त - प्रकाशयुक्त हो गई । उन्मग्नजला, निमग्नजला महानदियाँ ७१. ती तिमिसगुहा बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उम्मग्ग- णिमग्ग- जलाओ णामं दुवे महाणईओ पण्णत्ताओ, जाओ णं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लाओ भित्तिकडगाओ पबूढाओ समाणीओ पच्चत्थिमेणं सिंधूं महाणइं समप्पेंति । hi भंते! एवं वुच्चइ उम्मग्ग- णिमग्गजलाओ महाणईओ ? गोयमा ! जण्णं उम्मग्गजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कट्टं वा सक्करं वा आसे वा हत्थी वा रहे वा जोहे वा मणुस्से वा पक्खिप्पइ तण्णं उम्मग्गजलामहाणई तिक्खुत्तों आहूणिअ २ एगंते थलंसि एडेइ, तण्णं णिमग्गजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कट्टं वा सक्करं वा (आसे वाहत्थी वा रहे वा जोहे वा) मणुस्से वा पक्खिप्पड़ तण्णं णिमग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहुणिअ २ अंतो जलंसि णिमज्जावेइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ उम्मग्ग- णिमग्गजलाओं महाणईओ । १. तत्र सुवर्णमानमिदम् - चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः षोडश श्वेतसर्षपा एकं धान्यमाषफलम्, द्वे धान्यमाषफले एका गुञ्जा, पञ्चगुञ्जा एकः कर्ममाषकः षोडश कर्ममापका एकसुवर्णं इति । एक उर्द का दाना, दो उर्द के दाने एक घुंघची, पांच घुंघची - श्री जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति शान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ३ वक्षस्कारे सु. १४ चार मधुर तृणफल = एक सफेद सरसों, सोलह सफेद सरसों = एक मासा, सोलह मासे एक सुवर्ण - एक तोला । =
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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