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________________ १३० ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाड़ों पर तीन बार प्रहार किया। जिससे भारी शब्द हुआ। इस प्रकार सेनापति सुषेण द्वारा दण्डरत्न से तीन बार आहत-ताड़ित कपाट क्रोंच पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर सरसराहट के साथ पिने स्थान से विचलित हुए-सरके। यों सेनापति सुषेण ने तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले। वैसा कर वहा जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया (आकर राजा की तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की)। हाथ जोड़े, (हाथों से अंजलि बांधे मस्तक को छुआ)। राजा को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर राजा से कहा-देवानुप्रिय ! तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं। मैं तथा मेरे सहचर यह प्रिय संवाद आपको निवेदित करते हैं। आपके लिए यह प्रियकर हो। राजा भरत सेनापति सुषेण से यह संवाद सुनकर अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ। राजा ने सेनापति सषेण का सत्कार किया, सम्मान किया। सेनापति को सत्कत. सम्मानित कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उसने कहा-आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र तैयार करो। उन्होंने वैसा किया। तब घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना से संपरिवृत, अनेकानेक सुभटों के विस्तार से युक्त राजा उच्च स्वर में समुद्र के गर्जन के सदृश सिंहनाद करत हुआ अंजनगिरि के शिखर के समान गजराज पर आरूढ हुआ। काकणी रत्न द्वारा मण्डल-आलेखन ७०. तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तंसिअं छलंसं अणोवमजुइं दिव्वं मणिरयणपतिसमं वेरुलिअंसव्वभूअकंतं जेणं य मुद्धागएणं दुक्खं णं किंचि जाव हवइ आरोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिअदेवमाणुसकया य उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइणरो मणिवरं धरतो, ठिअजोव्वणकेसअवड्डिअणहो हवइ असव्वभयविप्पमुक्को,तं मणिरयणं गहाय से णरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए णिक्खिवइ। ____ तए णं से भरहाहिवेणरिंदे हारोत्थए सुकयरइअवच्छे ( कुंडलउज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे णरवई णरिंदे णरवसहे मरुअरायवसभकप्पे अब्भहिअरायतेअलच्छीए दिप्पमाण पसत्थमंगलसएहिं संथुव्वमाणे जयसद्दकयालोए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेअवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं २ जक्खसहस्ससंपरिवुडे वेसमणे चेव धणवई) अमरवइसण्णिभाए इद्धीए पहिअकित्ती मणिरयणकउज्जोए चक्करयणदेसिअभग्गे अणेगरायसहस्साणुआयमग्गे महयाउक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूअंपिव करेमाणे २ जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ २त्ता तिमिसगुहं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अईइ ससिव्व मेहंधयारनिवहं । तए णं से भरहे राया छत्तलं दुवालसंसिअंअट्ठकण्णिअंअहिगरणिसंठिअं अट्ठसोवण्णिअंकागणिरयणं परामुसइत्ति।तएणंतंचउरंगुलप्पमाणमित्तं अट्ठसुवण्णंचविसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठिअंसमतलं माणुम्माणजोगा जतो लोगे चरंति सव्वजणपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्थ सूरे ण इव अग्गी ण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति अंधयारे जत्थ तयं
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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