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________________ तृतीय वक्षस्कार ] कमर झुकी थी, अनेक बर्बर देश की, वकुश देश की, यूनान देश की, पह्नव देश की, इसिन देश की, थारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, सिंहल देश की, द्रविड़ देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, बहल देश की, मुरुंड देश की, शबर देश की, पारस देश की — यों विभिन्न देशों की थीं।) वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, प्रत्येक कार्य में निपुण थीं, कुशल थीं तथा स्वभावतः विनयशील थीं। [१२९ उन दासियों में से किन्हीं के हाथों में मंगल कलश थे, (किन्हीं के हाथों में फूलों के गुलदस्तों से भरी टोकरियां, भृंगार- झारियां, दर्पण, थाल, रकाबी जैसे छोटे पात्र, सुप्रतिष्ठक, वातकरक- करवे, रत्नकरण्डक - रत्न - मंजूषा, फलों की डलिया, माला, वर्णक, चूर्ण, गंध, वस्त्र, आभूषण, मोरपंखों से बनी, फूलों के गुलदस्तों से भरी डलिया, मयूरपिच्छ, सिंहासन, छत्र, चँवर तथा तिलसमुद्गक - तिल के भाजन - विशेष - डिब्बे आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ थीं । ) सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया। आकर उन्हें देखते ही प्रणाम किया । मयूरपिच्छ से बनी प्रमार्जनिका उठाई। उसने दक्षिणी द्वार के कपाटों को प्रमार्जित किया - साफ किया। उन पर दिव्य जल की धारा छोड़ीदिव्य जल से उन्हें धोया। धोकर आर्द्र गोशीर्ष चन्दन से परिलिप्त पांच अंगुलियों सहित हथेली के थापे लगाये । थापे लगाकर अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से उनकी अर्चना की। उन पर पुष्प ( मालाएँ, सुगन्धित वस्तुएँ, वर्णक, चूर्ण) वस्त्र चढ़ाये । ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, गोल (अपने में लटकाई गई मोतियों की मालाओं से युक्त ) चांदनी - चंदवा ताना। चंदवा तानकर स्वच्छ बारीक चांदी के चावलों से, जिनमें स्वच्छता के कारण समीपवर्ती वस्तुओं के प्रतिबिम्ब पड़ते थे, तमिस्रागुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स, (नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश तथा दपर्ण - ये आठ ) मांगलिक प्रतीक अंकित किये। कचग्रह- केशों को पकड़ने की ज्यों पांचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े। वैडूर्य रत्नों से बना धूपपात्र उसने हाथ में लिया । धूपपात्र को पकड़ने का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैडूर्यरत्न से बना था । धूप - पात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था । काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उससे उठ रही थी। सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल गोल धूममय छल्ले से बने रहे थे। उसने उस धूपपात्र में धूप दिया- धूप खेया । फिर उसने अपने बाएँ घुटने को जमीन से ऊँचा रखा (दाहिने घुटने को जमीन पर टिकाया) दोनों हाथ जोड़े, अंजलि रूप से उन्हें मस्तक से लगाया। वैसा कर उसने कपाटों को प्रणाम किया । प्रणाम कर दण्डरत्न को उठाया । वह दण्ड रत्नमय तिरछे अवयव - युक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु सेना का विनाशक था, राजा के सैन्य- सन्निवेश में गड्ढों, कन्दराओं, ऊबड़-खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाल था । वह राजा के लिए शांतिकर, शुभकर, हितकर, था इच्छित मनोरथों का पूरक था, दिव्य था, अप्रतिहत- किसी भी प्रतिघात से अबाधित था । सेनापति सुषेण ने उस दण्डरत्न को उठाया । वेग- आपादन हेतु वह सात आठ कदम पीछे 1
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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