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तृतीय वक्षस्कार]
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[६६] कृतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को बुलाया। बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! सिंधु महानदी के पश्चिम मे विद्यमान, पूर्व में तथा दक्षिण में सिन्धु महानदी द्वारा, पश्चिम में पश्चिम समुद्र द्वारा तथा उत्तर में वैताढ्य पर्वत द्वारा विभक्त-मर्यादित, भरतक्षेत्र के कोणवर्ती खण्डरूप निष्कुट प्रदेशों को, उसके सम, विषम अवान्तर -क्षेत्रों को अधिकृत करो-मेरे अधीन बनाओ। उन्हें अधिकृत कर उनसे अभिनव, उत्तम रत्न-अपनी-अपनी जाति के उत्कृष्ट पदार्थ गृहीत करो-प्राप्त करो। मेरे इस आदेश की पूर्ति हो जाने पर मुझे इसकी सूचना दो।
भरत द्वारा यों आज्ञा दिये जाने पर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ। सुषेण भरतक्षेत्र में विश्रुतयशा-बड़ा यशस्वी था। विशाल सेना का वह अधिनायक था, अत्यन्त बलशाली तथा पराक्रमी था। स्वभाव से उदात्त-बड़ा गम्भीर था। ओजस्वी-आन्तरिक ओजयुक्त, तेजस्वी-शारीरिक तेजयुक्त था। वह पारसी, अरबी आदि भाषाओं में निष्णात था। उन्हें बोलने में, समझने में, उन द्वारा औरों को समझाने में समर्थ था। वह विविध प्रकार से चारु-सुन्दर, शिष्ट भाषा-भाषी था। निम्न-नीचे, गहरे, दुर्ग-जहाँ जाना बड़ा कठिन हो, दुष्प्रवेश्य-जिनमें प्रवेश करना दुःशक्य हो, ऐसे स्थानों का विशेषज्ञ थाविशेष जानकार था। अर्थशास्त्र-नीतिशास्त्र आदि में कुशल था। सेनापति सुषेण ने अपने दोनों हाथ जोड़े। उन्हें मस्तक से लगाया-मस्तक पर से घुमाया तथा अंजलि बाँधे 'स्वामी! जो आज्ञा' यों कहकर राजा का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। ऐसा कर वह वहाँ से चला। चलकर जहाँ अपना आवास-स्थान था, वहाँ आया। वहाँ आकर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनको कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को-गजराज को तैयार करो, घोड़े, हाथी, रथ तथा उत्तम योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजाओ।
ऐसा आदेश देकर जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त किया-देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। उसने अपने शरीर पर लोहे के मोटे-मोटे तारों से निर्मित कवच कसा, धनुष पर दृढता के साथ प्रत्यञ्चा आरोपित की। गले में हार पहना। मस्तक पर अत्यधिक वीरतासूचक निर्मल, उत्तम वस्त्र गांठ लगाकर बांधा। बाण आदि क्षेप्य-दूर फेंके जाने वाले तथा खड्ग आदि अक्षेप्य-पास ही से चलाये जाने वाले शस्त्र धारण किये। अनेक गणनायक, दण्डनायक आदि से वह घिरा था। उस पर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र तना था। लोग मंगलमय जय-जय शब्द द्वारा उसे वर्धापित कर रहे थे। वह स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, आभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ आया। आकर उस गजराज पर आरूढ हुआ। चर्मरत्न का प्रयोग
६७. तए णं से सुसेणे सेणावइ हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं हयगयरहपवरजोहकलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभडचडगरपहगरवंदपरि