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________________ १२२ ] . [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र एक ओर रखे। वह डाभ के बिछौने पर उपगत हुआ। तेले की तपस्या में अभिरत) राजा भरत मन में कृतमाल देव का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ। भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में अभिरत हो जाने पर कृतमाल देव का आसन चलित हुआ। आगे का वर्णन-क्रम वैसा ही है, जैसा वैताढ्य गिरिकुमार का है। कृतमाल देव ने राजा भरत को प्रीतिदान देने राजा के स्त्री-रत्न के लिए-रानी के लिए रत्न-निर्मित चौदह तिलकललाट-आभूषण सहित आभूषणों की पेटी, कटक (त्रुटित तथा वस्त्र आदि) लिये। उन्हें लेकर वह शीघ्र गति से राजा के पास आया। उसने राजा को ये उपहार भेंट किये। राजा ने उसका सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर फिर वहाँ से विदा किया। फिर राजा भरत (पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। वहाँ आकर उसने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये। वैसा कर स्नानघर से बाहर निकला।) भोजन-मण्डप में आया। आगे का वर्णन पूर्ववत् है। कृतमाल देव को विजय करने के उपलक्ष्य में राजा के आदेश से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ। महोत्सव के सम्पन्न होते ही आयोजकों ने राजा को वैसी सूचना की। निष्कुट-विजयार्थ सुषेण की तैयारी ६६. तए णं से भरहे राया कयमालस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सद्दावेइ सद्दावइत्ता एवं वयासी-गच्छाहिणं भो देवाणुप्पिआ ! सिंधूए महाणईए पच्चथिमिल्लं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अओअवेहि ओअवेत्ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि अग्गाइं० पडिच्छित्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि। ततेणंसे सेणावई बलस्सणेआभरहे वासंमि विस्सअजसे महाबलपरक्कमे महप्पाओअंसी तेअलक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासो भरहे वासंमि णिक्खुडाणं निण्णाण य दुग्गमाण य दुप्पवेसाण य विआणए अत्थसत्थकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुटुचित्तमाणंदिए जाव करयलपरिग्गहिअंदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं सामी ! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता भरहस्स रण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव सए आवासे तेणेव उवागच्छइ रत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिंआ ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर(जोहकलिअं) चाउरंगिणि सेण्णं सण्णाहेहत्ति कटु जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २त्ता हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मिअकवए उप्पीलिअसरासणपट्ठिए पिणद्धगेविज्जबद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टे गहिआउहप्पहरणे अणेगगणनायगदंडनायग जाव' सद्धिं संपरिवुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिन्जमाणेणं मंगलजयसद्दकयालोए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ रत्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २त्ताआभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढे। १. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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