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२. परम पूज्य श्री अमोलकऋषिजी म. द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति। ३. जैनसिद्धान्ताचार्य मुनिश्री घासीलालजी म. द्वारा प्रणीत टीका सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तीनों भाग।
पाठ संपादन हेतु तोनों प्रतियों को आद्योपान्त मिलाना आवश्यक था, जो किशनगढ़-मदनगंज में चालू किया गया। तीनों प्रतियाँ मिलाने हेतु इस कार्य में कम से कम तीन व्यक्ति अपेक्षित होते । जब स्मरण करता हूँ तो हृदय श्रद्ध-विभोर हो उठता है, परम पूज्य स्व. युवाचार्यप्रवर श्री मधुकरमुनिजी म. कभी-कभी स्वयं पाठ मिलाने हेतु फर्श पर आसन बिछाकर विराज जाते। हमारे साथ पाठ-मेलन में लग जाते । समस्त भारतवर्ष के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के युवाचार्य के महिमामय पद पर संप्रतिष्ठ होते हुए भी कल्पनातीत निरभिमानिता, सरलता एवं सौम्यता संबलित जीवन का संवहन निःसन्देह उनकी अनुपम ऊर्ध्वमुखी चेतना का परिज्ञापक था।
. आगमिक कार्य परम श्रद्धेय युवाचार्यप्रवर को अत्यन्त प्रिय था। यह कहना अतिरंजित नहीं होगा, यह उन्हें प्राणप्रिय था। उनकी रग-रग में आगमों के प्रति अगाध निष्ठा थी। वे चाहते थे, यह महान् कार्य अत्यन्त सुन्दर तथा उत्कृष्ट रूप में संपन्न हो। स्मरण आते ही हृदय शोकाकुल हो जाता है, आगम-कार्य की सम्यक् निष्पद्यमान सम्पन्नता को देखने वे हमारे बीच नहीं रहे। कराल काल ने असमय में ही उन्हें हमसे इस प्रकार छीन लिया, जिसकी तिलमात्र भी कल्पना नहीं थी। काश ! आज वे विद्यामान होते, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का सुसंपन्न कार्य देखते, उनके हर्ष का पार नहीं रहता, किन्तु बड़ा दुःख है, हमारे लिए वह सब अब मात्र स्मृतिशेष रह गया है।
अपने यहाँ भारतवर्ष में मुद्रण-शुद्धि को बहुत महत्त्व नहीं दिया जाता। जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ्रान्स आदि पाश्चात्य देशों में ऐसा नहीं है वहाँ मुद्रण सर्वथा शुद्ध हो, इस ओर बहुत ध्यान दिया जाता है। परिणामस्वरूप यूरोप में छपी पुस्तकें, चाहे इण्डोलोजी पर ही क्यों न हों, अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध होती हैं। हमारे यहाँ छपी पुस्तकों में मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धियाँ बहुत रह जाती हैं। पाठ-मेलनार्थ परिगृहीत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की उक्त तीनों ही प्रतियाँ इसका अपवाद नहीं हैं । हाँ, आगमोदय समिति की प्रति अन्य दो प्रतियाँ की अपेक्षा अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध मुद्रित हैं । इन तीनों प्रतियों के आधार पर पाठ संपादित किया। पाठ सर्वथा शुद्ध रूप से उपस्थापित किया जा सके, इसका पूरा ध्यान रखा।
पाठ संपादन में 'जाव' का प्रसंग बड़ा जटिल होता है। जाव' दो प्रकार की सूचनाएं देता है। कहीं वह 'तक' का द्योतक होता है, कहीं अपने स्थान पर जोड़े जाने योग्य पाठ की मांग करता है। 'जाव' द्वारा वांछित, अपेक्षित पाठ श्रमपूर्वक खोज खोजकर यथावत् रूप में यथास्थान सन्निविष्ट करने का प्रयत्न किया।
पाठ संपादित हो जाने पर अनुवाद-विवेचन का कार्य हाथ में लिया। ऐसे वर्णन-प्रधान, गणित-प्रधान आगम का अधुनातन प्रवाहपूर्ण शैली में अनुवाद एक कठिन कार्य है, किन्तु मैं उत्साहपूर्वक लगा रहा। मुझे यह प्रकट करते हुए आत्मपरितोष है कि महान् मनीषी, विद्वद्वरेण्य युवाचार्यप्रवर के अनुग्रह एवं आर्शीवाद से आज वह सम्यक् सम्पन्न है। अनुवाद इस प्रकार सरल, प्रांजल एवं सुबोध्य शैली में किया गया है, जिससे पाठक को पढ़ते समय जरा फी विच्छिन्नता या व्यवधान की प्रतीति न हो, वह धारानुबद्ध रूप में पढ़ता रह सके । साथ ही साथ मूल प्राकृत के माध्यम से आगम पढ़ने वाले छात्रों को दृष्टि में रख कर अनुवाद करते समय यह ध्यान रखा गया है कि मूल का कोई भी शब्द अनुदित होने से छूट न पाए। इससे विद्यार्थियों को मूलानुग्राही अध्ययन में सुविधा होगी।
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