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प्रज्ञापना-ये दो उपांग सूत्र तथा नन्दी एवं अनुयोग- ये दो मूलसूत्र - कुल आठ सूत्र समाविष्ट हैं 1
बारहवें अंग दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग का अत्यन्त गहन, सूक्ष्म, विस्तृत विवेचन है, जो आज प्राप्य नहीं है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि छठा अंग ज्ञातृधर्मकथा धर्मकथानुयोग में आता है, जबकि छठा उपांग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति गणितानुयोग में आता है। विषय की दृष्टि से इनमें कोई संगति नहीं है । किन्तु परम्परया दोनों को समकक्ष अंगोपांग के रूप में स्वीकार किया जाता है।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
में
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र सात वक्षस्कारों में विभक्त है, जिनमें कुल १८१ सूत्र हैं। वक्षस्कार यहाँ प्रकरण प्रयुक्त है। वास्तव में इस शब्द का अर्थ प्रकरण नहीं है। जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जो वहाँ के वर्णनक्रम के केन्द्रवर्ती हैं। जैन भूगोल के अन्तर्गत उनका अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतएव वे यहाँ प्रकरण के अर्थ में उद्दिष्ट हैं।
प्रस्तुत आगम में जम्बूद्वीप का स्वरूप, विस्तार, प्राकार, , जैन कालचक्र - अवसर्पिणी- सुषमसुषमा, सुषमा सुषमदु:षमा, दु:षमसुषमा, दुःषमा, दुःषमदुःषमा, उत्सर्पिणी- दुःषमदुःषमा, दुःषमा, दुषमसुषमा, सुषमदु:षमा, सुषमा, सुषमसुषमा, चौदह कुलकर, प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ, बहत्तर कलाएं नारियों के लिए विशेषत: चौसठ कलाएं, बहुविधशिल्प, प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत, षट्खण्डविजय, चुल्लहिमवान्, महाहिमवान् वैताढ्य, निषध, गन्धमादन यमक, कंचनगिरि, माल्यवन्त मेरु, नीलवन्त, रुक्मी, शिखरी आदि पर्वत, भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, उत्तरकुरु, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरवत आदि क्षेत्र, बत्तीस विजय, गंगा, सिन्धु, शीता, शीतोदा, रूप्यकूला, सुवर्णकूला, रक्तवती, रक्ता आदि नदियाँ, पर्वतों, क्षेत्रों आदि के अधिष्ठातृदेव, तीर्थंकराभिषेक, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्क देव अयन, संवत्सर, मास, पक्ष, दिवस आदि एतत्सम्बद्ध अनेक विषयों का बड़ा विशद वर्णन हुआ है।
चक्रवर्ती भरत द्वारा षट्खण्डविजय आदि के अन्तर्गत अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जहाँ प्राकृत के भाषात्मक लालित्य की सुन्दर अभिव्यंजना है। कई प्रसंग तो ऐसे हैं, जहाँ उत्कृष्ट गद्य की काव्यात्मक छटा का अच्छा निखार परिदृश्यमान है। बड़े-बड़े लम्बे वाक्य हैं, किन्तु परिश्रान्तिकर नहीं हैं, प्रोत्साहक हैं ।
जैसी कि प्राचीन शास्त्रों की, विशेषत: श्रमण-संस्कृतिपरक वाङ्मय की पद्धति है, पुनरावृत्ति बहुत होती है । यहाँ ज्ञातव्य है, काव्यात्मक सृजन में पुनरावृत्ति निःसन्देह जो आपाततः बड़ी दुःसह लगती है, अनुपादेय है, परित्याज्य है, किन्तु जन-जन को उपदिष्ट करने हेतु प्रवृत्त शास्त्रीय वाङ्मय में वह इसलिए प्रयुक्त है कि एक ही बात बार-बार कहने से, दुहराने से श्रोताओं को उसे हृदयंगम कर पाने में अनुकूलता, सुविधा होती है । संपादन : अनुवाद : विवेचन
शुद्धतम पाठ संकलित एवं प्रस्तुत किया जा सके, एतदर्थ मैंने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र की तीन प्रतियाँ प्राप्त कीं, जो निम्नांकित हैं
१. आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित, संस्कृतवृत्ति सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ।
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