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________________ ११४ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र घटिकायन्त्र आदि के निर्माण में, परिखाओं-खाइयों के खनन में शुभ समय के, इनके निर्माण के प्रशस्त एवं अप्रशस्त रूप के परिज्ञान में प्रवीण था। शब्दशास्त्र में-शुद्ध नामादि चयन, अंकन, लेखन आदि में अपेक्षित व्याकरणज्ञान में, वास्तुप्रदेश में विविध दिशाओं में निर्मेय भवन के देवपूजागृह, भोजनगृह, विश्रामगृह आदि के संयोजन में सुयोग्य था। भवन निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न गर्भवती-फलाभिमुख, कन्या-निष्फल अथवा दूरफल बेलों, वृक्षों एवं उन पर छाई हुई बेलों के गुणों तथा दोषों को समझने में सक्षम था। गुणाढ्य था-प्रज्ञा, हस्तलाघव आदि गुणों से युक्त था। सान्तन, स्वस्तिक आदि सोलह प्रकार के भवनों के निर्माण में कुशल था। शिल्पशास्त्र में प्रसिद्ध चौसठ प्रकार के घरों की रचना में चतुर था। नन्द्यावर्त, वर्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशेष प्रकार के गृहों, ध्वजाओं, इन्द्रादि देवप्रतिमाओं, धान्य के कोठों की रचना में, भवन-निर्माणार्थ अपेक्षित काठ के उपयोग में, दुर्ग आदि निर्माण के अन्तर्गत जनावास हेतु अपेक्षित पर्वतीय गृह, सरोवर, यान-वाहन, तदुपयोगी स्थान-इन सबके संचयन और सन्निर्माण में समर्थ था। ____ वह शिल्पकार अनेकानेक गुणयुक्त था। राजा भरत को अपने पूर्वाचरित तप तथा संयम के फलस्वरूप प्राप्त उस शिल्पी ने कहा-स्वामी ! मैं आपके लिए क्या निर्माण करूं? राजा के वचन के अनुरूप उसने देवकर्मविधि से-चिन्तनमात्र से रचना कर देने की अपनी असाधाण, दिव्य क्षमता द्वारा मुहूर्त मात्र में-अविलम्ब सैन्यशिविर तथा सुन्दर आवास-भवन की रचना कर दी। वैसा कर उसने फिर उत्तम पौषधशाला का निर्माण किया। तत्पश्चात् वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। आकर शीघ्र ही राजा को निवेदित किया कि आपके आदेशानुरूप निर्माण कार्य सम्पन्न कर दिया है। इससे आगे का वर्णन पूर्ववत् है। जैसे राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपास्थानशाला थी, चातुर्घट अश्वरथ था, आया। ६१. उवागच्छित्ता तते णं ते धरणितलगमणलहुं ततो बहुलक्खणपसत्थं हिमवंतकंदरंतरणिवायसंवद्धिअचित्ततिणिसदलिअंजंबूणयसुकयकूबरं कणयदंडियारं पुलयवरिंदणीलसासगपवालफलिहवररयणलेठुमणिविद्मविभूसिअंअडयालीसाररइयतवणिज्जपट्टसंगहिअजुत्ततुंब पघसिअपसिअनिम्मिअनवपट्टपुट्ठपरिणिट्ठिअंविसिट्ठलट्ठमवलोहबद्धकम्मं हरिपहरणरयणसरिसचक्कं कक्केयणइंदणीलसासगसुसमाहिअबद्धजालकडगं पसत्थ विच्छिण्णसमधुरं पुरवरं च गुत्तं सुकिरणतवणिज्जजुत्तकलिअंकंकटयणिजुत्तकप्पणं पहरणाणुजायं खेडगकणगधणुमंडलग्गवरसत्तिकोंततोमरसरसयबत्तीसतोणपरिमंडिअंकणगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुहबलागगयदंतचंदमोत्तियतणसोल्लिअकुंदकुडयवरसिंदुवारकंदलवरफेणणिगरहारकासप्पगासधवलेहिं अमरमणपवणजइणचवलसिग्धगामीहिं चाहिं चामराकणगविभूसिअंगेहिं तुरगेहि सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सुकयसंधिकम्म सुसमाहिअसमरकणगगंभीरतुल्लघोसंवरकुप्परंसुचक्कं वरनेमीमंडलं वरधारातोंडं
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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