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________________ तृतीय वक्षस्कार] [११३ राजा भरत अपनी चातुरंगिणी सेना तथा विभिन्न वाहनों से युक्त, सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली तथा अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा यशस्वी-ऐश्वर्यशाली प्रतीत होता था। वह ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब (द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संबाध)-इनसे सुशोभित भूमण्डल की विजय करता हुआ-वहाँ के शासकों को जीतता हुआ, उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में स्वीकार करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआ उसके पीछे-पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर पड़ाव डालता हुआ जहाँ वरदामतीर्थ था, वहाँ आया। आकर वरदामतीर्थ से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, विशिष्ट नगर के सदृश अपना सैन्य-शिविर लगाया। उसने वर्द्धकिरत्न को बुलाया। उससे कहा-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवासस्थान तथा पौषधशाला का निर्माण करो। मेरे आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न कर मुझे सूचित करो। ६०. तएणं से आसमदोणमुहगामपट्टणपुरवरखंधावारगिहावणविभागकुसले एगासीतिपदेसु सव्वेसु चेव वत्थूसु णेगगुणजाणए पंडिए विहिण्णू पणयालीसाए देवयाणं वत्थुपरिच्छाए णेमिपासेसु भत्तसालासु कोट्टणिसु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छज्जे वेज्झे अदाणकम्मे पहाणबुद्धी जलयाणं भूमियाणं य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अकालनाणे तहेव सद्दे वत्थुप्पएसे पहाणे गब्भिणिकण्णरुक्खवल्लिवेढिअगुणदोसविआणए गुणड्डे सोलसपासायकरणकुसले चउसट्ठि-विकप्पवित्थियमई णंदावते यवद्धमाणे सोथिअरुअगतह सव्वओभद्दसण्णिवेसे अ बहुविसेसे उइंडिअअदेवकोट्ठदारुगिरिखायवाहणविभागकुसले इह तस्स बहुगुणद्धे, थवईरयणे णरिंदचंदस्स। तव-संजम-निविटे, किं करवाणी तुवट्ठाई॥१॥ सो देवकम्मविहिणा, खंधावारं णरिंद-वयणेणं। आवसहभवणकलिअं, करेइ सव्वं मुहुत्तेणं॥२॥ करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ २त्ता जेणेव भरहे राया (तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता) एतमाणत्तिअं खिप्पामेव पच्चप्पिणइ, सेसं तहेव जाव ' मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ। [६०] वह शिल्पी (वर्द्धकिरत्न) आश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पट्टन, नगर, सैन्यशिविर, गृह, आपणपण्यस्थान इत्यादि की समुचित संरचना में कुशल था। इक्यासी प्रकार के वास्तु-क्षेत्र का अच्छा जानकार था। उनके यथाविधि चयन और अंकन में निष्णात था, विधिज्ञ था। शिल्पशास्त्र-निरूपित पैंतालीस देवताओं के समुचित स्थान-सन्निवेश के विधिक्रम का विशेषज्ञ था। विविध परम्परानुगत भवनों, भोजनशालाओं, दुर्गभित्तियों, वासगृहों-शयनगृहों के यथोचित रूप में निर्माण करने में निपुण था। काठ आदि के छेदन-बेधन में, गैरिक लगे धागे से रेखाएँ अंकित कर नाप-जोख में कुशल था। जलगत तथा स्थलगत सुरंगों के, १. देखें सूत्र संख्या ४५
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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