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________________ तृतीय वक्षस्कार] [११५ वरवरबद्धतुंबं वरकंचणभूसिवरायरिअणिम्मिअवरतुरगसंपउत्तंवरसारहिसुसंपग्गहिवरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे, पवररयणपरिमंडिअंकणयखिंखिणीजालसोभिअंअउझं सोआमणिकणगतविअपंकयजासुअणजलणजलिअसुअतोंडरागं गुंजद्धबंधुजीवगरत्तहिंगुलणिगरसिंदूररुइलकुंकुमपारेवयचलणणयणकोइलदसणावरणरइतातिरेगरत्तासोगकणगकेसुअगयतालुसुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं बिंबफलसिलप्पवालउटुिंतसूरसरिसं सव्वोउअसुरहिकुसुमआसत्तमल्लदामं ऊसिअसेअज्झयं महामेहरसिअगंभीरणिद्धघोसं सत्तुहिअयकंपणं पभाए अ सस्सिरीअं णामेणं पुहविविजयलंभंति विस्सुतं लोगविस्सुतजसोऽहयं चाउग्घंटं आसरह पोसहिए णरवई दुरूढे। तएणंसे भरहे राया चाउग्घंटं आसरहंदुरूढे समाणे सेसंतहेवदाहिणाभिमुहे वरदामतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहइ जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से, णवरि चूडामणिं च दिव्व उरत्थगेविज्जगं सोणिअसुत्तगंकडगाणि अतुडिआणि अ(वत्थाणिअआभरणाणि अ) दाहिणिल्ले अंतवाले जाव अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ २त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति। तए णं से दिव्वे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ रत्ता अंतलिक्खपडिवण्णे ( जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसद्दसण्णिणादेणं) पूरंते चेव अंबरतलं उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं पभासतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था। __ [६१] वह रथ पृथ्वी पर शीघ्र गति से चलने वाला था। अनेक उत्तम लक्षण युक्त था। हिमालय पर्वत की वायुरहित कन्दराओं में संवर्धित विविध प्रकार के तिनिश नामक रथनिर्माणोपयोगी वृक्षों के काठ से वह बना था। उसका जुआ जम्बूनद नामक स्वर्ण से निर्मित था। उसके आरे स्वर्णमयी ताड़ियों के बने थे। वह पुलक, वरेन्द्र, नील सासक, प्रवाल, स्फटिक, लेष्ट, चन्द्रकांत, विद्रुम संज्ञक रत्नों एवं मणियों से विभूषित था। प्रत्येक दिशा में बारह बारह के क्रम से उसके अड़तालीस आरे थे। उसके दोनों तुम्ब स्वर्णमय पट्टों से संगृहीत थे-दृढीकृत थे, उपयुक्त रूप से बंधे थे-न बहुत छोटे थे, न बहुत बड़े थे। उसका पृष्ठपूठी विशेष रूप से घिरी हुई, बंधी हुई, सटी हुई, नई पट्टियों से सुनिष्पन्न थी। अत्यन्त मनोज्ञ, नूतन लोहे की सांकल तथा चमड़े के रस्से से उसके अवयव बंधे थे। उसके दोनों पहिए वासुदेव के शस्त्ररत्न-चक्र के सदृश-गोलाकार थे। उसकी जाली चन्द्रकांत, इन्द्रनील तथा शस्यक नामक रत्नों से सुरचित और सुसज्जित थी। उसकी धुरा प्रशस्त, विस्तीर्ण तथा एकसमान थी। श्रेष्ठ नगर की ज्यों वह गुप्त-सुरक्षितसुदृढ था उसके घोड़ों के गले में डाली जाने वाली रस्सी कमनीय किरणयुक्त-अत्यन्त द्युतियुक्त, लालिमामय स्वर्ण से बनी थी। उसमें स्थान-स्थान पर कवच प्रस्थापित थे। वह (रथ) प्रहरणों-अस्त्र-शस्त्रों से परिपूरित था। ढालों, कणकों-विशेष प्रकार के बाणों, धनुषों, मण्डलानों-विशेष प्रकार की तलवारों, त्रिशूलों, भालों, तोमरों, तथा सैकड़ों बाणों से युक्त बत्तीस तूणीरों से वह परिमंडित था। उस पर स्वर्ण एवं रत्नों द्वारा १. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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