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तृतीय वक्षस्कार]
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मुदित-प्रसन्न रहता था।अपनी पैतृक परम्परा द्वारा, अनुशासनवर्ती अन्यान्य राजाओं द्वारा उसका मूर्द्धाभिषेकराज्याभिषेक या राजतिलक हुआ था। वह उत्तम माता-पिता से उत्पन्न पुत्र था।
वह स्वभाव से करुणाशील था। वह मर्यादाओं की स्थापना करने वाला तथा उनका पालन करने वाला था। वह क्षेमंकर-सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला तथा क्षेमंधर-उन्हें स्थिर बनाये रखने वाला था। वह परम ऐश्वर्य के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। वह अपने राष्ट्र के लिए पितृतुल्य, प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, पथदर्शक तथा आदर्श-उपस्थापक था। वह नरप्रवर-वैभव, सेना, शक्ति आदि की अपेक्षा से मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा पुरुषवर-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों में उद्यमशील पुरुषों में परमार्थ-चिन्तन के कारण श्रेष्ठ था। कठोरता व पराक्रम में वह सिंहतुल्य, रौद्रता में वाघ सदृश तथा अपने क्रोध को सफल बनाने के सामर्थ्य में सर्पतुल्य था। वह पुरुषों में उत्तम पुण्डरीक-सुखार्थी, सेवाशील जनों के लिए श्वेत कमल जैसा सुकुमार था. वह पुरुषों में गन्धहस्ती के समान था-अपने विरोधी राजा रूपी हाथियों का मान-भंजक था। वह समृद्ध, दृप्त-दर्प या प्रभावयुक्त तथा वित्त या वृत्त-सुप्रसिद्ध था। उसके यहाँ बड़े-बड़े विशाल भवन, सोने-बैठने के आसन तथा रथ, घोड़े आदि सवारियाँ, वाहन बड़ी मात्रा में थे। उसके पास विपुल, सम्पत्ति, सोना तथ चाँदी थी। वह आयोग-प्रयोग–अर्थलाभ के उपायों
का प्रयोक्ता था-धनवृद्धि के सन्दर्भ में वह अनेक प्रकार से प्रयत्नशील रहता था। उसके यहाँ भोजन कर लिये जाने के बाद बहुत खाद्य-सामग्री बच जाती थी (जो तदपेक्षी जनों में बांट दी जाती थी)। उसके यहाँ अनेक दासियाँ, दास, गायें, भैंसें तथा भेड़ें थीं। उसके यहाँ यन्त्र, कोष-खजाना, कोष्ठागार-अन्न आदि वस्तुओं का भण्डार तथा शस्त्रागार प्रतिपूर्ण-अति समृद्ध था। उसके पास प्रभूत सेना थी। वह ऐसे राज्य का शासन करता था जिसमें अपने राज्यों के सीमावर्ती राजाओं या पड़ोसी राजाओं को शक्तिहीन बना दिया गया था। अपने सगोत्र प्रतिस्पर्धियों-प्रतिस्पर्धा व विरोध रखने वालों को विनष्ट कर दिया गया था, उनका धन छीन लिया गया था, उनका मानभंग कर दिया गया था तथा उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। यों उसका कोई भी सगोत्र विरोधी नहीं बचा था। अपने (गोत्रभिन्न) शत्रुओं को भी विनष्ट कर दिया गया था, उनकी सम्पत्ति छीन ली गई थी, उनका मानभंग कर दिया गया था और उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। अपने प्रभावातिशय से उन्हें जीत लिया गया था, पराजित कर दिया गया था।
इस प्रकार वह राजा भरत दुर्भिक्ष तथा महामारी के भय से रहित-निरुपद्रव, क्षेममय, कल्याणमय, सुभिक्षयुक्त एवं शत्रुकृत विघ्नरहित राज्य का शासन करता था।
राजा के वर्णन का दूसरा गम (पाठ) इस प्रकार है
वहाँ (विनीता राजधानी में) असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, उत्तम-अभिजात, कुलयुक्त, सत्त्व, वीर्य तथा पराक्रम आदि गुणों से शोभित, प्रशस्त वर्ण, स्वर, सुदृढ देह
१. टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरि ने 'मुदित' का एक दूसरा अर्थ निर्दोषमातृक भी किया है। उस सन्दर्भ में उन्होंने उल्लेख किया है-'मुइओ जो होइ जोणिसुद्धोति।'
- औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र ११