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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र संहनन, तीक्ष्ण बुद्धि, धारणा, मेधा, उत्तम शरीर-संस्थान, शील एवं प्रकृति युक्त, उत्कृष्ट गौरव, कान्ति एवं गतियुक्त, अनेकविध प्रभावक वचन बोलने में निपुण, तेज, आयु-बल, वीर्ययुक्त, निश्छिद्र, सघन, लोह - श्रृंखला की ज्यों सुदृढ वज्र - ऋषभ - नाराच संहनन युक्त था । उसकी हथेलियों और पगथलियों पर मत्स्य, युग, भृंगार, वर्धमानक, भद्रासन, शंख, छत्र, चँवर, पताका, चक्र, लांगल - हल, मूसल, रथ, स्वस्तिक, अंकुश, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, यूप - यज्ञ - स्तंभ, समुद्र, इन्द्रध्वज, कमल, पृथ्वी, हाथी, सिंहासन, दण्ड, कच्छप, उत्तम पर्वत, उत्तम अश्व, श्रेष्ठमुकुट, कुण्डल, नन्दावर्त, धनुष, कुन्त-भाला, गागर - नारी - परिधान विशेष - घाघरा, भवन, विमान प्रभृति पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूप में अंकित अनेक सामुद्रिक शुभ लक्षण विद्यमान थे। उसके विशाल वक्षःस्थल पर ऊर्ध्वमुखी, सुकोमल, स्निग्ध, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न - आकार निर्मित था । ९४ ] देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका सुगठित, सुन्दर शरीर था । बाल-स - सूर्य की किरणों से उद्बोधित— विकसित उत्तम कमल के मध्यभाग के वर्ण जैसा उसका वर्ण था । उसका पृष्ठान्त - गुदा भाग घोड़े के पृष्ठान्त की ज्यों निरुपलिप्त - मल-त्याग के समय पुरीष से अलिप्त रहता था, यों प्रशस्त था । उसके शरीर से पद्म उत्पल, चमेली, मालती, जूही, चंपक, केसर तथा कस्तूरी के सदृश सुगंध आती थी । वह छत्तीस से कहीं अधिक प्रशस्त-उत्तम राजगुणों से अथवा प्रशस्त - शुभ राजोचित लक्षणों से युक्त था । वह अखण्डित - छत्र अविच्छिन्न प्रभुत्व का स्वामी था । उसके मातृवंश तथा पितृवंश - दोनों निर्मल थे। अपने विशुद्ध कुलरूपी आकाश में वह 'पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था । वह चन्द्र - सदृश सौम्य था, मन और आंखों के लिए आनन्दप्रद था। वह समुद्र के समान निश्चल - गंभीर तथा सुस्थिर था । वह कुबेर की ज्यों भोगोपभोग में द्रव्य का समुचित, प्रचुर व्यय करता था। वह युद्ध में सदैव अपराजित, परम विक्रमशाली था, उसके शत्रु नष्ट हो गये थे। यों वह सुखपूर्वक भरतक्षेत्र के राज्य का भोग करता था । चक्ररत्न की उत्पत्ति : अर्चा : महोत्सव ५३. तए णं भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ आउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुपजत्था । तए णं आउघरिए भरहस्स रण्णो आउहघरसालाए दिव्वं चक्करयणं समुप्पणं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए, दिए, पीड्मणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए णामेव दिव्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल - ( परिग्गहिअदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं ) कट्टु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता आउघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणामेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणामेव भरहे राया, तेणामेव उवागच्छड़ उवागच्छित्ता करयल - जाव -जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पियाणं आउहघरसालाए दिव्वे १. देखें सूत्र यही
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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