________________
द्वितीय वक्षस्कार ]
अक्खसोअप्पमाणमेत्तं जलं वोज्झिहिंति । सेवि अ णं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेवणं आउबहुले भविस्सइ ।
तणं ते मणुआ सूरुग्गमणमुहुत्तंसि अ सूरत्थमणमुहुत्तंसि अ बिलेहिंतो णिद्धाइस्संति, विलेहिंतो णिद्धाइत्ता मच्छकच्छभे थलाई गाहेहिंति, मच्छकच्छभे थलाई गाहेत्ता सीआतवतत्तेहिं मच्छकच्छभेहिं इक्कवीसं वाससहस्साइं वित्तिं कप्पेमाणा विहरिस्संति ।
८१
भंते! मणुआ णिस्सीला, णिव्वया, णिग्गुणा, णिम्मेरा, णिप्पच्चक्खाणपोसोहववासा, ओसण्णं मंसाहारा, मच्छहारा, खुड्डाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति, कहिं उववज्जिहिंति य ?
गोयमा ! ओसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु उववज्जिहिंति ।
तीसे णं भंते! समाए सीहा, वग्घा, विगा, दीविआ, अच्छा, तरसा, परस्सरा, सरभसियालबिरालसुणगा, कोलसुणगा, ससगा, चित्तगा, चिल्ललगा ओसण्णं मंसाहारा, मच्छाहारा, खोद्दाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति कहिं उववज्जिहिंति ?
गोयमा ! ओसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु उववज्जिर्हिति ।
ते णं भंते ! ढंका, कंका, पीलगा, मग्गुगा, सिही ओसण्णं मंसाहारा, (मच्छाहारा, खोद्दाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा) कहिं गच्छिहिंति कहिं उववज्जिहिंति ? गोयमा ! ओसणं णरगतिक्खिजोणिएसु - (गच्छिहिंति ) उववज्जिर्हिति ।
[४६] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय के— पंचम आरक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दु:षम- दुःषमा नामक छठा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्ण - पर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा ।
भगवन्! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का आकार स्वरूप कैसा होगा ?
गौतम ! उस समय दुःखार्ततावश लोगों में हाहाकार मच जायेगा, गाय आदि पशुओं में भंभाअत्यन्त दुःखोद्विग्नता से चीत्कार फैल जायेगा अथवा भंभा - भेरी के भीतरी भाग की शून्यता सर्वथा रिक्तता के सदृश वह समय विपुल जन-क्षय के कारण जन- शून्य हो जायेगा । उस काल का ऐसा ही प्रभाव है।
तब अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, दुर्विषह - दुस्सह, व्याकुल- आकुलतापूर्ण भयंकर वायु चलेंगे, संवर्तक- तृण, काष्ठ आदि को उड़ाकर कहीं का कहीं पहुँचा देने वाले वायु- विशेष चलेंगे। उस काल में दिशाएँ अभीक्ष्ण-क्षण क्षण - पुनः पुनः धुंआ छोड़ती रहेंगी। वे सर्वथा रज से भरी होंगी, धूल से मलिन होंगी तथा घोर अंधकार के कारण प्रकाशशून्य हो जायेंगी। काल की रूक्षता के कारण चन्द्र अधिक अहितअपथ्य शीत- हिम छोडेंगे। सूर्य अधिक असह्य, जिसे सहा न जा सके, इस रूप में तपेंगे। गौतम ! उसके